Sunday, September 11, 2022

पितरों के साथ -- यम कथा-2

यम कथा-2

लेखक -- राजेन्द्र गुप्ता 

अभी तक –

देवताओं और दानवों की पौराणिक कथाओं को मानव सभ्यता के प्रारंभिक चरण की कहानियों के रूप में देखा जा सकता है। इन कहानियों के पीछे की मूल घटनाओं की खोज में, जीव-वैज्ञानिक आनंद प्राचीन काल की दुनिया में, पुरखों के साथ एक और यात्रा पर निकला। उसने देखा कि मानवों ने वनवासी जीवन छोड़ कर कृषि को अपनाया है और मानव सभ्यता की पहली पुरी या बस्ती बसायी है।

पहले भाग का लिंक यम कथा – 1

अब आगे यम कथा-2

आनंद अपने मित्र दीपक को अपना यात्रा वृतांत सुना रहा है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश इसी बस्ती में रहते हैं। आप भी सुनिए

“इस पुरी या बस्ती में सबसे बड़ा परिवार ब्रह्मा का है। सुना है कि सबसे अधिक संतान होने के कारण सब लोग उन्हें महाप्रजा कहते थे किन्तु अब यह शब्द बिगड़ कर ब्रह्मा हो गया है।

महा (बड़ा)

+ प्रजा (सन्तान, प्रजा, सन्तति, बच्चे)

= महाप्रजा > प्रजामहा > ब्रजामहा > ब्रहामहा > ब्रहमा

कृषि के आरंभ से ही यह निश्चित हो गया है कि जिस परिवार में सबसे अधिक सदस्य होंगे वही कृषि में सबसे सफल होगा और समाज में उसका ही वर्चस्व होगा। यहाँ सबसे बड़ा परिवार ब्रह्मा का है। कोई आश्चर्य नहीं कि मानव सभ्यता की यह पहली पुरी या बस्ती ब्रह्मपुरी कहलाती है।“

“मैदानी पशुचारी और कृषक सभ्यता में हिंसक पशुओं का खतरा कम हो गया है। लेकिन हिंसक पशुओं से भी बड़ी चुनौतियों ने आ घेरा है। कभी बीमार न होने वाले मानव अब बीमार हो रहे हैं। वन में कभी किसी व्यक्ति को रोग हो भी जाता तो उसे मिट्टी, पानी और पौधों से ही अपना उपचार करना आता था। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं का वैद्य था। वन्य जीवन में प्रत्येक मनुष्य जंगल, जमीन, जल, पौधे और जीव-जंतुओं का सहयात्री था। किन्तु सभ्य समाज में स्थिति बदल गयी है। यहाँ वन्य औषधियों का साथ छूट चूका है और स्थानीय औषधियों की पहचान नहीं हुई है। स्वयं अपना वैद्य होना काम नहीं आ रहा है। हिंसक पशुओं द्वारा शिकार न हो जाने के कारण लोग बूढ़े हो रहे हैं। उन्हें तरह-तरह की बीमारियों भी हो रहीं हैं।  अनेक घरों में अशक्त मृतप्राय रोगी पड़े हुए हैं, अनेक घरों में मृत शरीर भी पड़े हैं। परिजन निर्जीव शरीरों से चिपककर बिलखते रहते हैं। शवों से दुर्गंध आती है। समाज में संक्रामक रोग फैल रहे हैं। कोई नहीं जानता कि मृतप्राय और मृत शरीरों का क्या करें। वन्य जीवन की तरह, इस सभ्य समाज में अशक्त या मरे हुए को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ने की विवशता नहीं है। मरणासन्न हों या मृत सभी अपने हैं, सभी प्रिय हैं।

दीपक ने टोका, “वर्तमान समय में भी हमारी दिल्ली में भी कई बार समाचार आते हैं कि किसी कालोनी में कोई व्यक्ति अपने परिजन की मृत्यु के बाद भी उसके शव के साथ रह रहा था; दुर्गंध आने पर, पड़ोसियों ने पुलिस को बुलाया।”

आनंद बोला, “ऐसे प्रत्येक केस में व्यक्ति मानसिक रूप से विक्षिप्त होता है और समाज से पूरी तरह कटा हुआ होता है। किन्तु विश्व सभ्यता की इस पहली पुरी में मृत शरीरों का घर में पड़े होना मानसिक विक्षिप्तता के कारण नहीं था। किन्तु यह इसलिए था कि सभ्यता के संक्रमण काल में लोग नई चुनौतियों से निपटने की तरीकों से अभी तक अनजान थे। लेकिन शीघ्र ही उन्होंने इस समस्या का उपाय भी खोज लिया। मैं वही बताने जा रहा हूँ।“

आनंद को दीपक का टोकना अच्छा नहीं लगा। वह बोला,

“दीपक मुझे मत टोको। मैं अभी पुरखों के साथ की अनुभूति से अभिभूत हूँ। मैं मानसिक रूप से अभी तक वहाँ से नहीं लौटा हूँ।“

“इन हजारों वर्षों में अनेक शब्द बदल गए हैं। और अनेक शब्दों के अर्थ भी बदल गए हैं। आगे की बात समझने के लिए मृत और मृतक शब्द का अंतर समझना होगा। आजकल हम मृत और मृतक को पर्यायवाची मानते है। पुरखों के उस प्राचीन समाज में ऐसा नहीं था। मृत का अर्थ था जो मर चुका है। जो मृतप्राय या मरणासन्न अर्थात जो मरने वाला था उसके लिए मृतकल्प शब्द था। मूर्छित व्यक्ति भी मृतकल्प था। मृतकल्प को ही संक्षेप में मृतक कहने का चलन था।“

दीपक ने फिर टोका, ‘रुको। मुझे भ्रम हो रहा है। आज की भाषा में मृत और मृतक का अर्थ एक ही है। अपने विवरण में आप इन शब्दों के अलग प्रयोग करोगे तो इससे कहानी और विमर्श में बहुत भ्रम बढ़ेगा और उलझन होगी।“  

आनंद ने कहा “हम मृत और मृतक को एक ही शब्द मान रहे हैं, इसीलिए तो हम पिछले हजारों सालों से भ्रम और उलझन में जी रहे हैं। अब समय आ गया है कि हम इनके दो अलग अर्थ को पहचाने। सच यह है कि समय के अनुसार शब्द बदलते हैं। अनेक शब्दों के प्राचीन और आधुनिक अर्थ एक दूसरे के विलोम हैं। मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ। फिर मृत्यु से संबंधित एक और शब्द पर लौटूंगा जिसका अर्थ बदल गया है। पूर्व काल में आरोपी का अर्थ था-- आरोप लगाने वाला, और आरोपित का अर्थ था -- जिस पर आरोप लगाया गया है। किंतु आधुनिक समय में आरोपी और आरोपित का एक ही अर्थ हो गया है -- जिस पर आरोप लगाया गया है; आरोप लगाने वाले के रूप में आरोपी का अर्थ लुप्त हो चुका है। ठीक। अब आगे बढ़ें?

“ठीक है।“ दीपक ने कहा।

“उस समय की संस्कृत में एक शब्द था ‘श्वा’ जिसका अर्थ था हवा। श्वा > ह्व़ा > हवा।

लेकिन अब श्वा का अर्थ कुत्ता है। हवा के अर्थ में श्वा शब्द विलुप्त हो चुका है, लेकिन इसकी छाप अनेक शब्दों में देखी जा सकती है, जैसे श्वास, श्वसन, स्वसन, स्वस्थ, श्वसिति, आश्वसिति, आश्वासन।

आनंद ने आगे कहा, “वन में जब किसी मानव या प्राणी का कोई मृत शरीर कहीं पड़ा रह जाता था तो वह सड़ने के बाद मृदा या मिट्टी में बदल जाता था। लेकिन हर शरीर में मृदा कारक पदार्थ के अतिरिक्त कुछ स्थाई पदार्थ भी था जो सड़ता नहीं था। यह स्थाई रह गया पदार्थ ही ‘स्थाई’ शब्द में बदलाव के बाद अस्थि, ऑस्टियो और हड्डी हो गया।

स्थाई > हथाई > हडाई > हड्डी। इसी तरह से स्थाई से ही हठी शब्द बना। स्थाई > हठायी हठी।

स्थाई > अस्थाई > अस्थी (पुरबिया हिन्दी में स्थाई को अस्थाई कहते हैं)

अस्थि > ओस्थी > ओस्थियो osteo

“बहुत रोचक”, दीपक ने कहा।

हमेशा की तरह आनंद ने कहा, “हम विषय से और अधिक भटकने से पहले फिर पुरखों के पास लौटते हैं। आनंद ने एक बार फिर आँखें बंद की और वह ब्रह्मपुरी में लौट गया। वह बोल रहा था ...

“घर- घर में मृत और मृतक पड़े हुए हैं।  संक्रामक रोग फैल रहे हैं। मृत और मृतक का परिवार और समाज के बीच अधिक पड़े रहना बहुत बड़ा खतरा है। किन्तु शवों के दाह संस्कार या दफनाने का आविष्कार अभी नहीं हुआ है। अपने प्रिय मृतकों और मृतों को उठा कर जानवरों के खाने के लिए वन में तो नहीं छोड़ा जा सकता। ब्रह्मपुरी में कोई साधारण स्वयं-वैद्य इतनी बड़ी महामारी से नहीं निपट सकता। बस्ती में दो बड़े वैद्य हैं जिनसे कुछ आशा की जा सकती है, लेकिन वे दोनों ही उपलब्ध नहीं हैं। एक हैं शिव। वह बस्ती बहुत दूर, वन की सीमा पर पीपल के पेड़ के नीचे रहते हैं। उनके पास विष का अचूक उपचार है। सांप के काटने से और जंगली विषैले फलों के खाने के कारण जिन लोगों के प्राण संकट में पड़ जाते हैं, ऐसे हजारों लोगों को शिव ने मरने से बचाया है। यह रोचक है कि शिव के अनेक नामों में एक नाम वैद्यनाथ भी है। मरते हुए को जीवन देने वाले शिव को लोग ईश्वर ही मानते हैं। लेकिन उनका निश्चय है वे कभी बस्ती में नहीं आयेंगे। वैसे भी, शिव आए दिन यात्रा करने वाले, अखण्ड यायावर हैं। आजकल भी यात्रा पर हैं। वे कब अपने धाम पर लौटेंगे, कोई नहीं जानता। एक और वैद्य राज हैं, हरि। उनके पास भी अनेक विषहारी औषधियों का अनुपम ज्ञान है। हरि को  लोग विष्णु कहते हैं।

विष + नहीं = विषनहीं > विषणयी > विष्णु

दीपक आप को याद हैं न कि विष्णु सहस्रनाम में विष्णु का एक नाम वैद्य भी है। वह दिन-रात औषधीय अनुसंधान में लगे रहते हैं। विष्णु ने तुलसी, हल्दी और अनेक औषधीय पौधों की खोज की है। जब से विष्णु ने एक विशालकाय पक्षी गरुड़ को पालतू बनाया और उसका वाहन के रूप में उपयोग करने लगे हैं, वह एक हवाई यात्री बन गए हैं; वह भी आए दिन यात्रा करने वाले। विष्णु गरुड़ पर बैठ कर औषधीय और सुगंधित पौधों की खोज में जाते रहते हैं। कुछ समय पहले उन्होंने कहीं बहुत दूर औषधीय और सुगंधित पौधों की घाटी खोज निकाली है। वहाँ अनेक दुर्लभ और अनुपम औषधीय पौधे हैं। विष्णु इस घाटी को विगंधा कहते हैं। सुना है कि विष्णु विगंधा में ही अपना स्थायी आवास बनाना चाहते हैं। लोग विष्णु के नए धाम विगंधा  को गलत उच्चारण से बैकुंठ कहते हैं।  

वि + गंधा = विगंधा > बिगंध > बैगुंध > बैकुंध > बैकुंठ 

विष्णु हमेशा ब्रह्मपुरी में लौटने पर सभी पुरवासियों के लिए अनेक औषधियां लाते हैं। लेकिन कोई नहीं जानता कि विष्णु अब अगली बार कब आएंगे।  

(क्रमशः)

पहले भाग का लिंक यम कथा – 1

क्षारी-सागर में एनाकोण्डाओं की शैया पर आराम करते हुए भगवान विष्णु

Saturday, September 10, 2022

पितरों के साथ --- यम कथा -1

 यम कथा-1

लेखक -- राजेन्द्र गुप्ता 

देवताओं और दानवों की पौराणिक कथाओं को मानव सभ्यता के प्रारंभिक चरण की कहानियों के रूप में देखा जा सकता है। सभ्यता के आरंभ से लेकर आज तकहमारे पूर्वजों की सैकड़ों पीढ़ियों ने मुँह-बोले शब्दों के माध्यम से ही अपने बच्चों को इन घटनाओं के विषय में बार-बार बताया होगा। किन्तु इस बीच उच्चारण में बदलाव के चलतेकहानियों के मूल शब्दों में उसी तरह म्यूटेशन या परिवर्तन होते गए जैसे की हमारे आनुवंशिक जीन के डीएनए में होते रहते हैं। शब्दों में हुए इन परिवर्तनों के कारणअधिकतर कहानियों का मूल अर्थप्राचीन काल में आँखों-देखी घटनाओं के वर्णन से पूरी तरह से बदल गया होगा। मूल घटनाओं की खोज मेंजीव-वैज्ञानिक आनंद प्राचीन काल की स्वप्निल दुनिया मेंपुरखों के साथ एक और यात्रा पर निकला। और इस बार वह मानव सभ्यता के पहले पुर में जा पहुंचा है। जंगलों में घूमन्तू शिकारी जीवन और कंद-मूल-फल के संग्रह का जीवन छोड़ कर मानव ने खेती शुरू की है और विश्व का पहला पुर बसाया है। लेकिन इस सभ्य समाज पर एक संकट गहरा गया है। लाखों वर्षों के वन्य जीवन में इन लोगों ने कभी किसी बूढ़े पुरुष या बूढ़ी स्त्री को नहीं देखा था। लेकिन अब, पुर में लोग बूढ़े हो रहे हैं। उन्हें तरह-तरह के रोग हो रहे हैं। अनेक घरों में अशक्त मृतप्रायः रोगी पड़े हुए हैं, अनेक घरों में मृत शरीर भी पड़े हैं। परिजन निर्जीव शरीरों से चिपककर बिलखते रहते हैं। शवों से दुर्गंध आती है।  समाज में संक्रामक रोग फैल रहे हैं।  कोई नहीं जानता कि मृतप्रायः और मृत शरीरों का क्या करें।

आनंद अपने मित्र दीपक को पूरा विवरण बता रहा है। आप भी सुनिये ...  

आनंद की आँखें बंद हैं। वह बोल रहा है,

“लगभग 15,000 वर्ष पहले की बात है। हिमयुग समाप्त होने पर धरती के पर्यावरण में भारी परिवर्तन आया है।  पूरे भूमंडल पर गर्मी बढ़ रही है।  आजकल की भाषा में इसे ग्लोबल वार्मिंग (global warming) या भूमंडलीय ऊष्मीकरण कहते हैं।  बढ़ते तापमान से यूरोप के अधिकांश भाग की धरती पर जमी हुई बर्फ पिघल गयी है।  भारत में हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली नदियों का जलस्तर बढ़ गया है। लेकिन हिमालय के दक्षिण में, पूरे मध्य-भारत और दक्षिण भारत के पहाड़ों और वनों में सभी नदियाँ और झरने सूख रहे हैं।  इन्हीं पहाड़ी वनों में, हमारे घुमंतू, आहार-संग्राहक और शिकारी पुरखों की सैकड़ों पीढ़ियों ने जीवन बिताया है।  वनों में सब झरने और नदियों के सूख जाने के बाद पुरखों को उत्तर भारत के मैदानों में नदियों और तालाबों के किनारे स्थायी रूप से बसना पड़ा है। मैं राजस्थान में अजमेर-पुष्कर क्षेत्र में विश्व के पहले पुर में पुरखों के साथ हूँ। यह सभ्यता का आरंभ है। सभ्य जीवन पुरखों की पसंद नहीं अपितु एक पीड़ादायक विवशता है।  वन्य जीवन से सभ्य जीवन अपनाने के संक्रमण काल में उनकी जीवन शैली में क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हैं।  वन में रहते हुए, प्रतिपल जंगली जानवरों से जूझते हुए, अपनी जान बचाना और साथ में गर्भवती स्त्रियों और शिशुओं की जान बचाना ही प्राथमिकता थी।  मरे हुए बच्चे को छाती से चिपका कर घूमने की वानरी प्रवृत्ति भी वे छोड़ चुके थे।  वे समझ चुके थे कि मरे बच्चे को छाती से चिपकाये रखने से  रखने का माँ के जीवन को रोगों का खतरा था।  जंगल में दौड़ कर अपने आपको पशु से बचाने के समय भी मरे बच्चे को लादे रहने से दौड़ने की गति धीमी हो जाती थी।  अतः मरे हुए बच्चों को पशु से खाने से बचाने के लिए जमीन में दबाने की प्रथा शुरू हो चुकी थी। उस निरंतर गतिशील समाज में जब कोई वयस्क व्यक्ति भी रोग से अशक्त हो जाता या घायल हो कर पंगु हो जाता था तो उसे पीछे ही छोड़ना पड़ता था।  जब शिकार से लौट कर आते थे, तब तक अशक्त रोगियों और अपंगों को हिंस्र पशु खा चुके होते थे।  कभी-कभी उनके कंकाल ही मिलते थे।  मानव के इस वनवासी जीवन को केवल तीन शब्दों में परिभाषित किया जा सकता था, “सबल ही बचेगा”।  यही कारण है कि लाखों वर्षों के वन्य जीवन में युवा ही शिकार से वापस  लौटे थे।  सच तो यह है कि हमारे इन पुरखों ने कभी किसी बूढ़े पुरुष या बूढ़ी स्त्री को नहीं देखा था।

(क्रमशः)
आपकी पसंद के लिए -- 

क्षारी-सागर में एनाकोण्डाओं की शैया पर आराम करते हुए भगवान विष्णु

Monday, July 27, 2020

क्या आप भी 'श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन' गलत गा रहे हैं?

धार्मिक ग्रंथों के पन्ने अनेक बार बिखर कर गलत क्रम में आगे पीछे हो गए - 2. श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन

 

लेखक - राजेन्द्र गुप्ता


प्राचीन काल में धार्मिक ग्रंथ वृक्षों की छाल और पत्तों से बने पृष्ठों पर लिखे जाते थे। बाद में कागज पर लिखे जाने लगे। इन पृष्ठों आज की पुस्तक की तरह जिल्द में नहीं बांधा जाता था। इन्हें क्रम में लगाकर डोरी से बांधकर कपड़े में लपेट कर रखा जाता था। किन्तु ऐसा लगता है कि अनेक बार यह पृष्ठ बिखर जाते थे और किसी गलत क्रम में बांध दिए जाते थे। गलत क्रम में आगे-पीछे होने से कई बार कथा का अर्थ और संदर्भ बदल जाता था। 


आपने हनुमान चालीसा का पिछला उदाहरण पढ़ा। -- क्या आप भी हनुमान चालीसा गाने में एक बड़ी गलती कर रहे हैं? अब नया उदाहरण प्रस्तुत है। 


2. श्री राम स्तुति ।। 


'श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन' सबसे लोकप्रिय सबसे प्रसिद्ध राम भजन है। यह तुलसीदास जी की प्रसिद्ध पुस्तक विनय पत्रिका की 45वीं स्तुति है। विनय पत्रिका से इसका मूल पाठ और अर्थ इस लेख के अंत में दिया गया है ।


इस भजन को गाते हुए भक्त-गण एक विचित्र भूल करते हैं। वे भजन के बाद तुलसीदास जी के श्रीरामचारितमानस से एक छंद और एक सोरठा गाते हैं --

छंद 

मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सावरो । 

करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥६॥

एही भांति गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषीं अली । 

तुलसी भावानिः पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मंदिर चली ॥७॥


अर्थ:- जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर साँवला वर (श्रीरामचंद्रजी) तुमको मिलेंगे । वह दया का खजाना और सुजान (सर्वग्य) है । तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है ॥६॥

इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियाँ ह्रदय मे हर्षित हुई । तुलसीदासजी कहते हैं- भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चली ॥७॥


सोरठा 

जानी गौरी अनुकूल, सिय हिय हरषु न जाइ कहि । 

मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥८॥


अर्थ:- गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के ह्रदय में जो हरष हुआ वह कहा नही जा सकता । सुंदर मंगलो के मूल उनके बाये अंग फडकने लगे ॥८॥


ध्यान दीजिए कि 'श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन' विनय पत्रिका ग्रंथ से श्री राम की स्तुति है। इसके अंत में जो छंद और दोहा गाये जाते हैं  उनका  श्रीराम की स्तुति से कोई संबंध नहीं है। वे छंद और सोरठा  श्रीरामचरितमानस के बालकांड के उस प्रसंग से लिए गए हैं जहां सीता स्वयंवर से पहले सीता जी गौरी पूजन के लिए जाती हैं (बालकाण्ड दोहा 236)। ऐसा लगता है कि यह भी पूर्व काल में श्रीरामचरितमानस और विनय पत्रिका के पृष्ठों के बिखर जाने और उन्हें गलत जगह लगा दिए जाने का परिणाम है।


श्रीराम स्तुति का अंतिम पद है --

इति वदति तुलसीदास, शंकर शेष मुनि-मन-रंजनं । 

मम ह्रदय कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं ॥५॥


इसके बाद 'मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु' इत्यादि गाना गलत है। ------------------------------------------------ *'श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन' का मूल पाठ (विनय पत्रिका से)*


श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणं ।।

नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज पद कंजारुणं ।।१।।


अर्थ:- हे मन ! कृपालु श्रीरामचंद्रजी का भजन कर, वे संसार के जन्म-मरण रूप दारुण भय को दूर करने वाले है । उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान है । मुख-हाथ और चरण भी लालकमल के सदृश हैं ॥१॥


कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरम । 

पट पीत मानहु तडित रूचि-शुची नौमी, जनक सुतावरं ॥२॥


अर्थ:- उनके सौंदर्य की छ्टा अगणित कामदेवो से बढ्कर है । उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुंदर वर्ण है । पीताम्बर मेघरूप शरीर मे मानो बिजली के समान चमक रहा है । ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजी को मै नमस्कार करता हूँ ॥२॥


भजु दीनबंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनं । 

रघुनंद आनंद कंद कोशल चन्द्र दशरथ नंदनम ॥३॥


अर्थ:- हे मन ! दीनों के बंधू, सुर्य के समान तेजस्वी, दानव और दैत्यो के वंश का समूल नाश करने वाले, आनन्दकंद, कोशल-देशरूपी आकाश मे निर्मल चंद्र्मा के समान, दशरथनंदन श्रीराम का भजन कर ॥३॥


सिर मुकुट कुंडल तिलक चारू उदारु अंग विभुषणं । 

आजानुभुज शर चाप-धर, संग्राम-जित-खर दूषणं ॥४॥


अर्थ:- जिनके मस्तक पर रत्नजडित मुकुट, कानों में कुण्डल, भाल पर तिलक और प्रत्येक अंग मे सुंदर आभूषण सुशोभित हो रहे है । जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी है । जो धनुष-बाण लिये हुए है, जिन्होने संग्राम में खर-दूषण को जीत लिया है ॥४॥


इति वदति तुलसीदास, शंकर शेष मुनि-मन-रंजनं । 

मम ह्रदय कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं ॥५॥


अर्थ:- जो शिव, शेषजी और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभादि शत्रुओं का नाश करने वाले है । तुलसीदास प्रार्थना करते हैं कि वे श्रीरघुनाथजी मेरे ह्रदय कमल में सदा निवास करे ॥५॥

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आभार इस लेख को लिखते समय मुझे तुलसी साहित्य के विद्वान और मेरे मित्र डा. अवनीजेश अवस्थी से विचार-विमर्श का लाभ मिला। उनका बहुत आभार।


Thursday, May 28, 2020

क्या आप भी हनुमान चालीसा गाने में एक बड़ी गलती कर रहे हैं?

धार्मिक ग्रंथों के पन्ने अनेक बार बिखर कर गलत क्रम में आगे पीछे हो गए - 1
हनुमान चालीसा


लेखक -- राजेन्द्र गुप्ता

मेरे ब्लॉग 'शब्दों का डीएनए' 'DNA OF WORDS' की मुख्य विषय वस्तु शब्दों में परिवर्तन है। इस ब्लॉग में शब्दों में वर्णों का क्रम बदल जाने से नए शब्द बनने के अनेक उदाहरण हैं। इसमें शब्दों में परिवर्तन के कारण कुछ धार्मिक कथाओं में अर्थ का अनर्थ होने के उदाहरण भी हैं। आज की पोस्ट शब्दों में बदलाव से हटकर है। यह दिखाती है कि कई बार पुस्तक के पृष्ठों के क्रम में बदलाव से भी ग्रंथों में गड़बड़ हुई है।

प्राचीन काल में धार्मिक ग्रंथ वृक्षों की छाल और पत्तों से बने पृष्ठों पर लिखे जाते थे। बाद में कागज
के पृष्ठों पर लिखे जाने लगे। इन पृष्ठों को आजकल की पुस्तकों 
की तरह जिल्द में नहीं बांधा जाता था। इन्हें क्रम में लगाकर डोरी से बांधकर कपड़े में लपेट कर रखा जाता था। किन्तु ऐसा लगता है कि अनेक बार यह पृष्ठ बिखर जाते थे और किसी गलत क्रम में बांध दिए जाते थे। गलत क्रम में आगे-पीछे होने से कई बार कथा का अर्थ और संदर्भ बदल जाता था। 

उदाहरण प्रस्तुत हैं।

1. हनुमान चालीसा
यह तुलसीदास जी रचित हनुमान जी की स्तुति है। किंतु 
बड़ी अजीब बात है कि इस हनुमान स्तुति से पहले एक दोहा गाया जाता है जिसमें कहा गया है कि अब मैं श्री राम की स्तुति शुरू करता हूँ!! 

“श्रीगुरु चरन सरोज रज
निजमनु मुकुरु सुधारि
बरनउँ रघुबर बिमल जसु
जो दायकु फल चारि।”
अर्थ -- “(तुलसीदास कहते हैं) श्री गुरु जी के चरण कमलों की धूल से मैं अपने मन रूपी दर्पण को साफ करके राम जी के उस विमल यश का वर्णन करूंगा जो (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूपी) चारों फलों का दायक है।
मूल रूप से यह दोहा तुलसीदास जी रचित श्रीरामचरितमानस में अयोध्याकाण्ड के आरंभ में मंगलाचरण श्लोकों के तुरंत बाद आया है। पूरे अयोध्याकाण्ड में और उसके बाद अरण्यकाण्ड में भी राम कथा में हनुमान जी का वर्णन नहीं है। हनुमान जी पहली बार किष्किंधाकाण्ड में आते हैं।

यह बहुत अटपटी बात है कि आप शुरू में कहें कि मैं राम जी का गुणगान करुंगा और फिर हनुमान जी का गुणगान करते रहें, रामजी की बात भी नहीं करें। हनुमान चालीसा की चालीसों चौपाइयों और अंतिम दोहे में हनुमान जी का गुणगान है, राम जी का नहीं।

बात साफ है कि “श्रीगुरु चरन सरोज रज" दोहे का हनुमान चालीसा से कोई संबंध नहीं है। ऐसा लगता है कि यह पृष्ठों के बिखर जाने और उन्हें गलत जगह लगा दिए जाने का परिणाम है। हनुमान चालीसा गाने से पहले "श्रीगुरु चरन सरोज रज" दोहा गाना गलत है।

अगली बार आप हनुमान चालीसा गाने से पहले केवल हनुमान जी के आह्वान से शुरू करिए --
" बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार" 

और फिर 
" जय हनुमान..............आदि चालीस चौपाइयाँ   

अगली बार -- आप '
श्रीरामचंद्र कृपालु भज मन' गाने में एक बड़ी गलती कर रहे हैं

Thursday, April 16, 2020

सूतक शब्द कहाँ से आया?

कोरोना वायरस महामारी के समय में सूतक शब्द की चर्चा है। ऐसा लगता है कि पूरी दुनिया को सूतक लगा है। सूतक संस्कृत का शब्द है। इसका मूल अर्थ है -- अपवित्रता / अशुद्धता / अशौच। इस शब्द का प्रयोग विशेष स्थितियों में परिवार वालों को होने वाली अशुद्धता के लिए होता हैजैसे 1. जननाशौच-- बच्चे के जन्म के समय या स्त्री के गर्भपात के कारण; 2. गाय के बच्चा देने पर; 3. मरणाशौच -- परिवार में किसी के मरने पर। 4. सूर्य या चंद्रमा का ग्रहण के समय।
हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार सूतक की अशुद्धता निश्चित अवधि के लिए रहती है। जैसे बच्चा पैदा होने पर 10 दिन और मृत्यु होने पर 12 दिन के लिए। सूतक के आरंभ होते ही घर में रखे हुए पानी और भोजन को अपवित्र मान कर फेंक दिया जाता है। परिवार जनों के द्वारा द्वारा अनेक वस्तुओं को छूना मना होता है। परिवार में धार्मिक क्रियाएं मना होती हैं। किसी को भी सूतक लगे परिवार के भोजन या पानी को छूना मना होता है। किसी की मृत्यु होने पर सूतक की अवधि में उस परिवार में भोजन बनाना भी मना होता है। गुल्लक में रुपया डालने भी मना है। आधुनिक युग में अधिकतर परिवारों में व्यावहारिक कारणों से सूतक के निषेधों का पूरा पालन नहीं किया जाता। 
सूतक की अवधि समाप्त होने पर घर की शुद्धि के लिए औषधीय वनस्पतियों की हविषा दे कर हवन किया जाता है।

ऐसा मानने के पर्याप्त कारण हैं कि प्राचीन काल में सूतक प्रथा आरंभ करने के पीछे संक्रमण रोकने के लिए जन स्वास्थ्य की नीति रही होगी।

सूतक शब्द का उत्स एक रहस्य है। संस्कृत व्याकरण के नियम के अनुसार सूतक शब्द का उत्स सूत होना चाहिए
सूत > सूतक
  
सूत के अनेक अर्थ हैंजैसे 1. जन्मा हुआउत्पन्न। 2. सारथी अर्थात रथ चलाने वाला। 3. बंदीजन। 4. सूर्य। 5. पारा।

सूत शब्द का कोई भी अर्थ सूतक प्रथा में अंतर्हित छुआ-छूत की भावना को नहीं छूता। सूत शब्द के इन विभिन्न अर्थों में कुछ भी समानता नहीं है। अतः इन सभी अर्थों के लिए सूत शब्द के अनेक उत्स होने चाहिए। 

मेरा प्रस्ताव है कि सूतक शब्द छूत पर आधारित शब्द छूतक का अपभ्रंश है। मूल छूतक शब्द विलुप्त हो चुका है। 

छूत > छूतक > सूतक 

सूतक का सूत से कोई संबंध नहीं है। 

आपका क्या विचार हैक्या आप सहमत हैंआपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।    




Saturday, March 07, 2020

बाज और घोड़ा के लिए एक जैसे शब्द -- श्येन, बाज, बाजि, वाजिन, वेगिन

लेखक -- राजेन्द्र गुप्ता

पिछली पोस्ट से जारी... 
पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा कि संस्कृत में विजेता के लिए जयेन शब्द भी है। उसी से श्येन शब्द निकला जिसका प्रयोग बाज पक्षी के लिए हुआ। संस्कृत में एक विशेष प्रकार के घोड़े को भी श्येन कहते हैं। किन्तु घोड़े और बाज के लिए एक ही शब्द का प्रयोग यही नहीं रुकता। संस्कृत में बाजि शब्द का प्रयोग घोड़े के लिए भी होता है। शायद बाजि शब्द का उत्स गति के लिए वाज शब्द में है। वाज और बाज लगभग एक समान शब्द हैं।  
वाज / बाज शब्द भी वेग अर्थात गति का तद्भव रूप हो सकता है। 
वेग > वेज > वाज > बाज
संस्कृत में श्येन। बाज को वेगिन् भी कहते हैं।
वेग > वेगिन् । अतः वेगिन का अर्थ हुआ गतिमान।  
प्राणियों में तीव्र गति के लिए प्रसिद्ध घोड़े को संस्कृत में वाजिन् भी कहते हैं। घोड़े के लिए वाजिन और बाज के लिए वेगिन, दोनों शब्द सगे संबंधी है!
वेगिन् > वागिन > वाजिन
बाजि - तुलसीदास जी ने रामचारित मानस में अनेक स्थानों पर घोड़े के लिए बाजि शब्द का प्रयोग किया है। बाजि भी बाज, वेगिन और वाजिन का संबंधी है।
संस्कृत में बाज का एक और पर्यायवाची शब्द पाजिक है। यह भी वेग पर ही आधारित है। जैसे वेग से वेगिन, वैसे ही वेग से वेगिक। वेगिक > बेजिक > बाजिक > पाजिक।  
या फिर बाज > बाजिक > पाजिक 
बाज के लिए अंग्रेजी का हॉक hawk भी वेग का ही बिगड़ा रूप लगता है। 
वेग
> वेक > एवक > हवक > ह्वाक
या फिर वेग > ह्वेग > ह्वेक > ह्वाक > हॉक hawk
शिकारी पक्षी होने के कारण बाज को शिकरा भी कहते हैं। 
शिकारी > शिकारा > शिकरा     
संस्कृत में श्येन / बाज के लिए अनेक अन्य शब्द भी हैं जो अपनी कहानी स्वयं कहते हैं, जैसे मारक (मारने वाला), खगान्तक (पक्षियों का अंत करने वाला), कपोतारि (कबूतरों का शत्रु) तथा शशघ्नी (खरगोश मारने वाला)। 

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Wednesday, March 04, 2020

शाहीन बाग़ का शाहीन शब्द कहाँ से आया?



लेखक -- राजेन्द्र गुप्ता
भारत में राजधानी
दिल्ली की शाहीन बाग कॉलोनी में लंबे समय से सरकार विरोधी धरना-प्रदर्शन चल रहा है। इस कारण, आजकल शाहीन शब्द सबके मुँह पर है। शाहीन फ़ारसी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है बाज पक्षी। एक समाचार के अनुसार कॉलोनी बनाने वाले ने इसका नाम अल्लामा इकबाल की प्रसिद्ध नज़्म ‘सितारों से आगे जहाँ और भी हैं’ की एक पंक्ति से लिया था–
“तू शाहीन है, परवाज़ है काम तेरा, तेरे सामने आसमान और भी हैं” (परवाज़ = उड़ान)। किन्तु जिज्ञासा है कि बाज के अर्थ में शाहीन शब्द फ़ारसी में कहाँ से आया? चलिए शाहीन शब्द के डीएनए/ DNA की जाँच करते हैं। इससे हमें इस शब्द के उत्स और रिश्तेदारियों का पता चलेगा। हिन्दी, पंजाबी, बांग्ला आदि अनेक भारतीय भाषाओं की तरह ही फ़ारसी भी संस्कृत से निकली है। इसमें संस्कृत के तद्भव शब्दों की भरमार है। शाहीन या बाज के लिए संस्कृत में निकटतम शब्द श्येन हैं। अतः फ़ारसी का शाहीन संस्कृत के श्येन का ही तद्भव रूप है। श्येन > शयेन > शहेन > शहीन > शाहीन। 
अब प्रश्न उठता है कि संस्कृत में श्येन शब्द कहाँ से आया?हमारे पुरखे कभी किसी व्यक्ति, प्राणी या पौधे का निरर्थक नाम नहीं रखते थे। निश्चय ही श्येन या बाज के सभी मूल नाम गुणवाचक ही रहे होंगे। श्येन एक शिकारी पक्षी है। इसे सबसे अच्छा ‘फ्लाइंग मशीन’ कहा जाता है। यह आकाश में 4000 मीटर या लगभग 12000 फीट की उंचाई तक उड़ान भर सकता है। यह आसमान का सबसे तेज पक्षी है जो शिकार पर झपट्टा मारने के लिए 320 किमी प्रति घंटे से भी अधिक गति से गोता मार सकता है। बाज, सबसे तेज ही नहीं, सबसे शक्तिशाली पक्षी भी है। बाज के तेज और नुकीले पंजों और मजबूत चोंच से कोई भी शिकार नहीं बच सकता। निश्चय ही बाज आकाश का विजेता है, राजा है। प्राचीन काल में शिकार और युद्ध में भी इसका प्रयोग होता था।  

युद्ध के लिए बाज पालने के कारण गुरु गोबिन्द सिंह को ‘बाजाँ वाला’ भी कहा जाता है। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने लिखा -- चिड़ियों से मैं बाज लडाउँ, गीदड़ों को मैं शेर बनाउँ। सवा लाख से एक लडाउँ, तभी गोबिंद सिंह नाम कहाउँ!! इस पद में बाज को विजेता का प्रतीक माना गया है। संस्कृत में विजेता को जयन या जयिन् भी कहते हैं। श्येन शब्द जयिन् का ही बिगड़ा रूप दिखता है।
जयिन् > शयिन > शयेन > श्येन। यह यात्रा फ़ारसी में भी जारी रहती है— श्येन > शयीन > शहीन > शाहीन
या फिर
जयिन् > शयिन > शहीन > शाहीन
वेद और पुराणों में हमारी सभ्यता के उद्गम और विकास की झलक मिलती है। संसार की सबसे प्राचीन पुस्तक ऋगवेद में गरुड़ पक्षी को श्येन कहा गया है। ऋगवेद में गरुड़/श्येन देव-लोक से सोम लेकर धरती पर आता था। गरुड़ सभी पौराणिक पक्षियों में सबसे बड़ा और सबसे शक्तिशाली है। गरुड़ भगवान विष्णु का वाहन है और इसे पक्षीराज की उपाधि दी गई है। अतः मेरा विचार है कि श्येन या जयेन शब्द मूल रूप से गरुड़ पक्षी के लिए ही प्रयोग होता था किन्तु गरुड़ के लुप्त होने के बाद बाज आदि अन्य शक्तिशाली पक्षियों के लिए प्रयोग किया गया। यह उसी तरह हुआ है जैसे सिंह / शेर के लुप्तप्रायः होने के कारण आजकल बाघ को भी शेर कहा जाने लगा है। और तो और आजकल देवी दुर्गा का वाहन भी सिंह /शेर न हो कर बाघ को दिखाया जाने लगा है!

विश्व में ज्यामिति का सबसे प्राचीन ग्रंथ बोधायन का शुल्बसूत्र है, इसके अनुसार यज्ञ की वेदी में समिधा को पंख फैलाए हुए श्येन के आकार में सजाया जाता था। इस यज्ञ वेदी को श्येनचिती (ज्योति > चयोति > चिति) कहते थे। 







उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले के पुरोला गाँव में 2100 वर्ष पुरानी श्येनचिती यज्ञ-वेदी के पुरातात्विक अवशेष मिले हैं।
उतरप्रदेश में कौशांबी में भी एक पुरातात्विक स्थल का नाम श्येनचिती है। वेदव्यास के महाभारत और कामन्दक के नीतिसार के अनुसार युद्ध की एक व्यूह रचना को भी श्येन कहते हैं। क्या यह नाम जयन/जयिन व्यूह का बिगड़ा रूप है या इसका बाज से कोई संबंध है? अमरसिंह, हलायुद्ध और हेमचन्द्र के प्राचीन संस्कृत शब्दकोशों के अनुसार एक विशेष प्रकार के घोड़े को भी श्येन कहते हैं। मैं नहीं जानता कि यह श्येन कहलाया जाने वाला घोड़ा अश्वमेध यज्ञ द्वारा विश्वविजय के लिए निकला अश्व होता था या कोई और विशेष घोड़ा। क्या श्येनचिती विजय के लिए किए जाने वाले किसी अश्वमेश यज्ञ की वेदी होती थी? (जयिन ज्योति > श्येन चिती ?)। इसका उत्तर तो संस्कृत साहित्य के  विद्वान  ही दे सकेंगे।    

चलते-चलते, शाहीन से उपजे कुछ पाजी शब्द। शाहीन बाग के संदर्भ में सोशल मीडिया पर शब्दों से खेल करने वाले विद्वानों ने बहुत खिलवाड़ भी की है और अनेक नए अपशब्दों को  गढ़ा है। कुछ उदाहरण: - शाह-हीन बाग, श्वान बाग, दिशा-हीन बाग, तौहीन बाग। 

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