हनुमान चालीसा
लेखक -- राजेन्द्र गुप्ता
मेरे ब्लॉग 'शब्दों का डीएनए' 'DNA OF WORDS' की मुख्य विषय वस्तु शब्दों में परिवर्तन है। इस ब्लॉग में शब्दों में वर्णों का क्रम बदल जाने से नए शब्द बनने के अनेक उदाहरण हैं। इसमें शब्दों में परिवर्तन के कारण कुछ धार्मिक कथाओं में अर्थ का अनर्थ होने के उदाहरण भी हैं। आज की पोस्ट शब्दों में बदलाव से हटकर है। यह दिखाती है कि कई बार पुस्तक के पृष्ठों के क्रम में बदलाव से भी ग्रंथों में गड़बड़ हुई है।
प्राचीन काल में धार्मिक ग्रंथ वृक्षों की छाल और पत्तों से बने पृष्ठों पर लिखे जाते थे। बाद में कागज
के पृष्ठों पर लिखे जाने लगे। इन पृष्ठों को आजकल की पुस्तकों की तरह जिल्द में नहीं बांधा जाता था। इन्हें क्रम में लगाकर डोरी से बांधकर कपड़े में लपेट कर रखा जाता था। किन्तु ऐसा लगता है कि अनेक बार यह पृष्ठ बिखर जाते थे और किसी गलत क्रम में बांध दिए जाते थे। गलत क्रम में आगे-पीछे होने से कई बार कथा का अर्थ और संदर्भ बदल जाता था।
प्राचीन काल में धार्मिक ग्रंथ वृक्षों की छाल और पत्तों से बने पृष्ठों पर लिखे जाते थे। बाद में कागज
के पृष्ठों पर लिखे जाने लगे। इन पृष्ठों को आजकल की पुस्तकों की तरह जिल्द में नहीं बांधा जाता था। इन्हें क्रम में लगाकर डोरी से बांधकर कपड़े में लपेट कर रखा जाता था। किन्तु ऐसा लगता है कि अनेक बार यह पृष्ठ बिखर जाते थे और किसी गलत क्रम में बांध दिए जाते थे। गलत क्रम में आगे-पीछे होने से कई बार कथा का अर्थ और संदर्भ बदल जाता था।
उदाहरण प्रस्तुत हैं।
1. हनुमान चालीसा
यह तुलसीदास जी रचित हनुमान जी की स्तुति है। किंतु बड़ी अजीब बात है कि इस हनुमान स्तुति से पहले एक दोहा गाया जाता है जिसमें कहा गया है कि अब मैं श्री राम की स्तुति शुरू करता हूँ!!
यह तुलसीदास जी रचित हनुमान जी की स्तुति है। किंतु बड़ी अजीब बात है कि इस हनुमान स्तुति से पहले एक दोहा गाया जाता है जिसमें कहा गया है कि अब मैं श्री राम की स्तुति शुरू करता हूँ!!
“श्रीगुरु चरन सरोज रज
निजमनु मुकुरु सुधारि
बरनउँ रघुबर बिमल जसु
जो दायकु फल चारि।”
अर्थ -- “(तुलसीदास कहते हैं) श्री गुरु जी के चरण कमलों की धूल से मैं अपने मन रूपी दर्पण को साफ करके राम जी के उस विमल यश का वर्णन करूंगा जो (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूपी) चारों फलों का दायक है।
मूल रूप से यह दोहा तुलसीदास जी रचित श्रीरामचरितमानस में अयोध्याकाण्ड के आरंभ में मंगलाचरण श्लोकों के तुरंत बाद आया है। पूरे अयोध्याकाण्ड में और उसके बाद अरण्यकाण्ड में भी राम कथा में हनुमान जी का वर्णन नहीं है। हनुमान जी पहली बार किष्किंधाकाण्ड में आते हैं।
यह बहुत अटपटी बात है कि आप शुरू में कहें कि मैं राम जी का गुणगान करुंगा और फिर हनुमान जी का गुणगान करते रहें, रामजी की बात भी नहीं करें। हनुमान चालीसा की चालीसों चौपाइयों और अंतिम दोहे में हनुमान जी का गुणगान है, राम जी का नहीं।
बात साफ है कि “श्रीगुरु चरन सरोज रज" दोहे का हनुमान चालीसा से कोई संबंध नहीं है। ऐसा लगता है कि यह पृष्ठों के बिखर जाने और उन्हें गलत जगह लगा दिए जाने का परिणाम है। हनुमान चालीसा गाने से पहले "श्रीगुरु चरन सरोज रज" दोहा गाना गलत है।
अगली बार आप हनुमान चालीसा गाने से पहले केवल हनुमान जी के आह्वान से शुरू करिए --
" बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार"
और फिर
" जय हनुमान..............आदि चालीस चौपाइयाँ
अगली बार -- आप 'श्रीरामचंद्र कृपालु भज मन' गाने में एक बड़ी गलती कर रहे हैं
bohot achha samjhaya hai apne
ReplyDeleteWow.. Thank you for Keeping detailed information of Hanuman Chalisa..
ReplyDeleteबजरंग बाण
आप जो कह रहे हैं सही है पर मैं कहीं पढ़ा है कि जब गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा लिखने की कोशिश करी थी तो वह जो भी लिखते थे वह मिटा दी जाती थी "हनुमान जी के द्वारा" "हनुमान जी चाहते ही नहीं थे कि इस तरह से गुणगान हो तो हनुमान जी का" उनकी लेखनी को मिटाने से रोकने के लिए उन्होंने श्री राम जी की स्तुति से शुरू कर दिया! फिर जाकर उनकी यह लेखनी मिटाने से या मिटाए जाने से बच्ची कहां क्या सच है क्या नहीं मुझे नहीं पता और धर्म तो आस्था पर ही है अब इसमें तरक करना है या नहीं ....स्वैंम पर निर्भर है।
ReplyDeleteजैसा आपने लिखा अगर ऐसा सच में नहीं भी हुआ हो तो भी जितना सुन्दर और मनमोहक यह किस्सा है उससे मुझ जैसे मंद बुद्धि, पर दिल से सच्चे भक्त को इससे ज्यादा कोई प्रमाण नहीं चाहिए। मुझे लगता है उपासना सम्बंधित रचनाओं की असल उपयोगिता और सार्थकता ऐतिहासिकता या भाषा की शुद्धता के आधार के बजाय उनके मर्म और भक्त में उन रचनाओं द्वारा जगाई गयी भावनाओं के आधार पर होनी चाहिए। हम तकनीकी तौर से कितना भी विकास कर लें या अपने आप को कितना ही बड़ा भाषा वैज्ञानिक समझें वास्तविकता यह है की शत प्रतिशत तौर पे पूर्ण रूप से कोई भी भाषाविद इतने पुराने ग्रंथों के एक एक तथ्य की असल उद्देशित क्रम को साबित नहीं कर सकता और यह सम्पूर्ण चर्चा आखिरकार भक्त की भावना और आस्था पे ही आके ठहरती है और मेरे मत में वही सही भी है।
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