Thursday, October 18, 2012

लेटिन कानूनी शब्द 'सुओ मोतु' की संस्कृत में रिश्तेदारी Sanskrit Relationship of Latin Legal Term 'Suo Motu / Moto '

Note: The English Version of this article is given at the end of the article in Hindi 

अन्याय से भरपूर इस जगत में एक नियम सभी देशों में लागू है कि जब तक कोई व्यक्ति अन्याय की शिकायत नहीं करता, तब तक आरोपी पर न्यायालय में मुकदमा नहीं चल सकता। हम सभी जानते हैं कि आजकल भारत में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कार्यकर्ता मुकदमे चला कर न्याय पाने के लिए के लिए कितना संघर्ष  कर रहें हैं। लेकिन कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि शिकायत के बिना ही मुकदमा चल जाता है, या बिना मुकदमे के ही न्यायधीश आदेश सुना देते हैं। ऐसा तब होता है जब अपराध की किसी संगीन घटना से न्यायधीश इतना विचलित हो जाते हैं कि उन्हें लगता है कि शिकायत किए जाने की प्रतीक्षा करना भी भारी अन्याय होगा। उदाहरण के लिए, अभी पिछले सप्ताह, दिल्ली उच्च न्यायालय ने अखबार में छपी एक खबर का बिना शिकायत के ही संज्ञान लिया। खबर थी कि दिल्ली के लोधी उद्यान में बहुत से घूँस (मोटे चूहे) उद्यान को हानि पहुँचा रहे हैं। चूहों के साथ ही, न्यायालय ने बिना किसी छपी खबर के ही अपनी ओर से लोधी उद्यान में आवारा कुत्तों की आवारगी का भी संज्ञान लिया और नई दिल्ली नगर पालिका को चूहों और कुत्तों के खिलाफ आदेश दे डाला। वह और बात है कि श्रीमति मानेका गांधी के हस्तक्षेप के बाद न्यायालय ने प्यारे आवारा कुत्तों के खिलाफ क्रूरता-भरा आदेश एक सप्ताह बाद वापिस भी ले लिया। 


न्यायालय या किसी अन्य अधिकारी द्वारा इस तरह घटना का स्वयं ही संज्ञान लेने को कानूनी भाषा में 'सुओ मोतु' या 'सुओ मोतो' (suo motu/ moto) कहते हैं। 'सुओ मोतु' लेटिन भाषा का शब्द हैं जिसका शाब्दिक अर्थ है 'अपने आप करना'। 

एक मत के अनुसार संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है, लेटिन की भी। तो फिर संस्कृत में 'सुओ मोतु, के लिए क्या शब्द है? स्व = अपना, और  मति = बुद्धि, चेतना। अतः  मुझे लगता है कि न्यायधीश का 'स्व मति' द्वारा निर्णय को ही लेटिन में उच्चारण भेद के चलते 'सुओ मोतु' कहते हैं। 

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Sanskrit Relationship of Latin Legal Term 'Suo Motu / Moto'

In this world full of injustice, a rule is observed universally that a law suit cannot commence in  a court of law unless someone makes a formal complaint.  We all know about the struggle of India's anti-corruption activists to file anti-corruption cases in courts. However, do you know that occasionally, trial may take place and the judgement announced even without anyone making any complaint. This may happen when a judge is overwhelmed by the gravity of a crime that he/she feels it unnecessary to wait for filing of formal complaint. He/shes takes the cognizance of the event and initiates proceedings on his/her own. For example, last week, the Delhi High Court took cognizance of a news report about damage to Delhi's Lodhi Gardens by the bandicoots (a type of big rats). The court on its own also took cognizance of the menace of stray dogs in Lodi Gardens and ordered the New Delhi Municipal Committee to take steps against dogs and bandicoots. (However, within a week, the animal rights activists Mrs. Maneka Gandhi intervened on behalf of the very dear stray dogs, and the high Court withdrew its (cruel) order against the dogs. 

When a court or any other authority takes cognizance of an event on its own, it is called "Suo Motu / Moto' in legal terms. "Suo Motu is a Latin term that literally means 'on its own motion'. 


According to one theory Sanskrit is the mother of all languages including Latin. What would be the Sanskrit equivalent of Latin 'suo motu'? 


The Sanskrit words SWA स्व + MATI   मति foot the bill. SWA स्व mean self and MATI मति  means wisdom or consciousness. Thus SWA MATI  स्व मति of Sanskrit seem to the 'suo motu' of Latin with minor variations of pronunciation. 


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Monday, October 15, 2012

मैंगो पीपुल, आम आदमी, और कामन मैन Mango People, AAM AADAMI, and Common Man


Note: The English Version of this article is given at the end of the article in Hindi 

कुछ दिन पहले, सोनिया जी के दामाद राबर्ट वाड्रा ने अपने फेसबुक स्टेटस पर लिखा: 'मैंगो पीपुल इन अ बनाना कंट्री' (mango people in a banana country).  इससे उपजे विवाद के कारण यह अभिव्यक्ति 'मैंगो पीपुल' भारत में हर किसी की जुबान पर है। कौन जाने, 'मैंगो पीपुल' को,  इसके बढ़ते हुए प्रयोग के कारणजल्दी ही 'ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी' में 'कॉमन मैन' के पर्यायवाची के रूप में शामिल कर लिया जाए! 

पर यह 'मैंगो पीपुल" कहाँ से आया? सबसे पहले इसका प्रयोग किसने किया? इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अभी और रिसर्च करनी होगी। किन्तु एक बात तो पक्की है कि आम आदमी के लिए 'मैंगो पीपुल' की अभिव्यक्ति राबर्ट वाड्रा के दिमाग की उपज नहीं है। लेकिन हाँ, 'मैंगो पीपुल' से उनकी कुछ रिश्तेदारी जरूर बनती है।

कई वर्षों से, राबर्ट की सासू-माँ सोनिया जी की पार्टी, चुनाव के समय उनकी फोटो के साथ एक नारा लगाती आयी है: "कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ"।  देश में बहुत लोगों को यह नारा विश्वसनीय नहीं लगता। वे अपने तरीके से इसका विरोध करते आए हैं। आजकलजब अरविंद केजरीवाल कॉंग्रेस सरकार का विरोध करते हैं, तब,  टोपी पर "मैं हूँ आम आदमी" लिख कर निकलते हैं। इसमें उनका साफ उद्देश्य होता है -- कॉंग्रेस के आम-आदमी वाले नारे की खिल्ली उड़ाना। इंटरनैट पर भी कॉंग्रेस के इस नारे की खिल्ली उड़ाने वाले लेखों और कार्टूनों की कोई कमी नहीं है। इनमें से कई लोग आम आदमी को 'मैंगो मैन' ही कहते हैं। अपने आप को भी 'मैंगो मैन' कहने वाले कई लोग साइबर दुनियाँ में कई वर्षों से मौजूद हैं। लेकिन केजरीवाल द्वारा लगाए भ्रष्टाचार के आरोपों से तिलमिलयाए हुए राबर्ट वाड्रा जब फेसबुक पर तिरस्कार से भरा 'मैंगो पीपुल लिख रहे थे, तब साफ तौर से उनका निशाना 'मैं हूँ आम आदमी' वाली टोपी पहने अरविंद केजरीवाल ही थे। 

यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं हैं कि हिन्दी शब्द 'आम' दो अर्थों में जाना जाता है: 1. अरबी भाषा से हिन्दी में आया शब्द आम = साधारण, मामूली, जनसाधारण, जनता; अँग्रेज़ी में कॉमन common; 2. हिन्दी का मूल शब्द आम = फलों का राजा आम, जिसे अँग्रेज़ी में मैंगो mango कहते हैं; और यह भी कि 'मैंगो पीपुल' कह कर मज़ाक बनाने वालों ने आम के पहले अर्थ के स्थान पर दूसरे अर्थ का अँग्रेज़ी अनुवाद किया था। इस ब्लॉग में आप आम के दूसरे अर्थ यानी 'फलों का राजा आम' पर एक लेख पहले ही पढ़ चुके हैं (How mango might have got its names आम का नामकरण कैसे हुआ होगा)आज हम चर्चा करेंगे पहले अर्थ की, और उसी अर्थ लिए हुए अँग्रेज़ी शब्द कॉमन common की। 

मेरे विचार से, संस्कृत शब्द 'सम' पहले अरबी भाषा में गया होगा और बिगड़ कर 'आम' बना होगा। फिर लौट कर, उसी बिगड़े हुए रूप में फारसी, उर्दू के रास्ते हिन्दी में शामिल हो गया! संस्कृत में सम का अर्थ है: एक जैसा, समान, सामान्य, मामूली। संस्कृत वर्ण श/ष/स/ फारसी, अरबी, तुर्की में बदल कर '' हो जाते हैं। ग्रीक/यूनानी तक पहुँचते हुए यही स से ह हुई आवाज आ या ई में बदल जाती है।  इस परिवर्तन का सबसे जाना पहचाना उदाहरण है: सिंधु> हिन्दू > इन्दु> इंडिया; या सिंधु > इंडस। अतः,  सम के आम में बिगड़ने की क्रिया कुछ इस तरह रही होगी: सम >साम> हाम > आम।

अब देखें कि अँग्रेज़ी में कॉमन शब्द कहाँ से आया? भाषाविदों के अनुसार समान या सामान्य के लिए लेटिन शब्द कोम्युनिस है। उसी से फ़्रेंच शब्द कोम्युन बना। जिससे 1250-1300 ई॰  के आसपास अँग्रेज़ी शब्द कोमुन बना, जिसे हम आज कॉमन के रूप में जानते है।

लेकिन, क्यों न हम लेटिन शब्द कोम्युनिस और उससे बने अँग्रेजी शब्द कॉमन का उत्स संस्कृत के शब्दों सम/ समान/ सामान्य में ही खोजें ? संस्कृत की '' ध्वनि यूरोपियाई भाषों में अनेक बार '' में बदल जाती है, जैसे  सह > को; समिति > कमेटी। अतः सम से कॉमन की यात्रा कुछ इस रही होगी: 
सम > समान > सामान्य > चामान्य > कामान्य > कामान्ज >कामन्स > कामानीज़ communis (Latin)। फिर लेटिन से अँग्रेजी की यात्रा तो हम देख ही चुके हैं।

आप क्या सोचते हैं?
शायद आप यह लेख पढ़ना चाहेंगे: 
How mango might have got its names आम का नामकरण कैसे हुआ होगा        

Mango People, AAM AADAMI, and Common Man  

Some days ago, Mrs Sonia Gandhi’s son-in-law Robert Vadra wrote on his Facebook status: “Mango people in a banana country”. The use of the expression ‘mango people’ by Vadra caused a huge controversy. Consequently, the expression 'mango people’ is gaining currency in India. Who knows, 'mango people' may soon find its place in the Oxford English Dictionary as synonym for the 'common man'!

What is the origin of the phrase "mango people" and who coined it? There is no answer to these questions right now and it will require some more will research. But one thing is certain that the usage of 'mango people’ for common men is not a product of Robert Vadra’s brain. But yeah, Vadra has some relationship with the origin of 'mango people'.


For many years, at the time of elections, Robert's mother-in-law Mrs Sonia Gandhi and her Congress party have been using her photo with a slogan: "CONGRESS KA HAATH, AAM AADAMI KE SAATH (hand of congress is with the common man). This slogan does not seem credible to many people in the country. They oppose it in their own way. Nowadays, when Arvind Kejriwal comes out on streets to oppose the congress party, he is seen wearing a cap with the words: "MAIN HOON EK AAM AADAMI”, i.e. I am the common man".  And by doing this Kejriwal is obviously ridiculing the AAM ADAMI slogan of Sonia ji. There is no dearth of articles and cartoons ridiculing the AAM ADAMI slogan on the Internet. Some authors and cartoonists call the common man as the ‘mango people’.  In fact, for many years now, several people in the cyberspace have been calling themselves as ‘mango man’. When stung by corruption charges against him, Robert Vadra wrote the scornful line on the Facebook, “mango people in banana republic", he was clearly targeting Arvind Kejriwal wearing a AAM ADAMI cap.

The Hindi/ Urdu word AAM used in AAM ADAMI has two meaning, (1) used in the sense of common, simple, modest, masses, the word AAM is a borrowing from Arabic. The word came to India with the invading Arabs and Iranians in medieval times. (2) the mango fruit is known as AAM in Hindi, Urdu, Bengali, Asamese, Punjabi. The origin of the word mango and AAM was discussed earlier in another article in this blog (How mango might have got its names आम का नामकरण कैसे हुआ होगा).  Today we discuss the origin of the word AAM in the sense of its usage for ‘common’.

In my opinion, the Sanskrit word 'SAMA' 'सम' (= similar, simple, modest, common) transformed into the Arabic AAM through degeneration, and returned to Hindi, Urdu and other Indian languages in its new acquired form. It is well known that the Sanskrit characters sha / Sha ष/ sa transform into ‘ha ' in Persian, Arabic and Turkish. It changes further into a, or i in Greek. The most familiar example of this transformation is: Sindhu > Hindu> Indu> India; and Sindhu > Indus. Therefore, the process of evolution of AAM आम from SAMA सम may have been: SAMA> HAMA > AAMA > AAM.

Let’s now examine the origin of the word ‘common’. According to linguists, the Latin word commūnis gave rise to the English word common: Latin commūnis common> Old French comun > Anglo-French comun > Middle English comun> English common ~ 1250-1300;
But then, what is the origin of the Latin word commūnis? The DNA of commūnis shows its strong homology to Sanskrit words for common SAMA सम and SAMANA समान. The sound of 's' in Sanskrit words changes to sh /k / ch in many European words, e.g. SAHA सह > co, and SAMITI समिति > committee.  Therefore the etymology of common should be redefined as follows: SAMA (Sanskrit) = common > SAMANA (Sanskrit) = common > SAMANYA (Sanskrit) = common > CHAMANAYA > KAMANYA > KAMANZ > KOMONIS> communis Latin > comun (French) > common (English).

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How mango might have got its names आम का नामकरण कैसे हुआ होगा    




Friday, October 12, 2012

मौन, मोयान और मो यान -- हिन्दी और चीनी में एक अर्थ और ध्वनि वाले दो शब्द





साहित्य के लिए 2012 का नोबेल चीनी साहित्यकार श्री मो यान दिया जायेगा। उनका असली नाम गुआन मोये है, लेकिन वह छद्म नाम मो यान से लिखते हैं। चीनी में मो यान का अर्थ है खामोशी या मौन। मो यान चीन में रहने वाले दूसरे व्यक्ति हैं, जिन्हे नोबेल पुरस्कार मिलेगा। पहले पुरस्कार विजेता हैं: मानवाधिकार कार्यकर्ता श्री लियू क्षियाबो। किन्तु सरकार-नियंत्रित चीनी मीडिया ने कभी चीनियों को क्षियाबो के पुरस्कार की खबर नहीं दी। वे लगातार जेल में हैं। अब जबकि मो यान के लिए नोबेल पुरस्कार की खबर आई, तो एक चीनी टिप्पणीकार ने इंटरनेट पर लिखा, “पहला भी मोयान (खामोश/मौन) था, दूसरा भी मो यान है!"

क्या यह सिर्फ एक संयोग है कि संस्कृत, हिन्दी और अनेक भारतीय भाषाओं का शब्द मौन और उसका चीनी पर्यायवाची मोयान लगभग एक जैसी ध्वनि लिए हुए हैं? क्या मौन और मोयान का डीएनए एक ही है? 

संस्कृत शब्दों मन, मुनि और मौन में आपस का रिश्ता माना जाता है। मन का अभिप्राय हमारी चेतना, मस्तिष्क, या सहजबोध से है। मुनि का तात्पर्य उस साधक से है जो मन या अपनी अंतर-प्रेरणा से काम करे या फिर उस साधु से जिसने मौन व्रत लिया हो।  इस अर्थ में मौन और मोयान (चीनी) में चुप रहने का सक्रिय आत्म-निर्णय निहित है।

किसी बीमारी के कारण न बोल पाने या गूंगेपन के लिए संस्कृत और हिन्दी का शब्द मूक है। खामोशी के लिए मूक से मिलते-जुलते शब्द जापानी और कोरियन में भी मिलते हैं: जापानी में मोकुही 黙秘(mokuhi), और कोरियन में चिम्मुक 침묵  (chimmuk)। तो क्या कह दें: हिंदी-चीनी-जापानी-कोरियन  सब भाई-भाई या फिर बहन-बहन!

The Unity of Words for Silence in Hindi and Chinese -- Maun, Moyan and Mo Yan

हिन्दी में यह आलेख पढ़ें:  मौन, मोयान और मो यान -- हिन्दी और चीनी में एक अर्थ और ध्वनि वाले दो शब्द


Chinese author Mr Mo Yan has won the Nobel prize for literature 2012. His real name is Guan Moye but he writes under the pseudonym Mo Yan which means 'silence' in Chinese. Mo Yan is the second person living in China to win a Nobel Prize. The human rights activist Mr Liu Xiabo was the first. However, the government-controlled Chinese media never disclosed the news of Xiabo's prize to the Chinese public. Xiabo continues to be in jail. When the news came for a Nobel for Mo Yan, a Chinese commentator wrote on the Internet, “The first one was moyan [silent]. The second was still Mo Yan!”

Is it simply a coincidence that the Chinese word for silence ‘moyan’ sounds similar to the Sanskrit word 'maun' मौन having the same meaning? 

The Sanskrit word 'maun' मौन is considered to be related to the Sanskrit words ‘man' मन (pronounced as mun)  =  mind, thought, instinct; and muni मुनि =  anyone who is moved by inward impulse, or a hermit who has taken the vow of silence. Thus, 'maun' मौन implies conscious decision to observe silence. Another Sanskrit word 'mook' मूक (=dumb) implies pathological inability to speak. Similar sounding words mokuhi 黙秘 (Japanese) and chimmuk 침묵 (Korean) also mean silence.

Shall we say now, Hindi-Chini-Japani-Korean bhai-bhai or behan-behan! (Hindi, Chinese, Japanese and Korean are brothers or sisters!) 

Friday, August 24, 2012

महर्षि वाल्मीकि-2: सीता जी का पिता रावण! सीता जी का भाई राम!!


                 Maharshi Valmiki -2: Sita’s father Ravan! Sita’s brother Ram!!   
                          
  
              
महर्षि वाल्मीकि 7000 वर्षों के बाद भारत-यात्रा पर आए। उन्हें पता चला कि इस बीच रामायण-गायकों के गलत उच्चारण के कारण राम-कथा के कई गलत रूप भी प्रचलित हो गए हैं। विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है कि सीता रावण की पुत्री थीऔर यह भी कि राम और सीता भाई बहन थे। वाल्मीकि जी को यह जान कर दुःख हुआ कि उनकी रामायण को काल्पनिक माना जा रहा है। पिछले अंक में आपने पढ़ा कि वाल्मीकि जी ने बताया कि उनका नाम वाल्मीकि नहीं रामकवि हैउनके शरीर पर दीमक लगने की कहानी झूठ है और यह भी कि उन्होने राम-राम का उल्टा जाप नहीं किया। अब आगे पढ़िए कि राम सीता के भाईबहन होने और सीता के रावण की पुत्री होने की कथाएँ कैसे बनी...       

कथा का भाग एक इस लिंक पर है :
महर्षि वाल्मीकि-1: शरीर पर दीमक और राम नाम का उल्टा जाप

भाग 1 से जारी...

आपने हमारी आंखे खोल दींरामकवि,” वाइस-चांसलर जी ने कहा, “हम समझ गए हैं कि आपके छात्रों की शरारतों के कारण ही आपका नाम वाल्मीकि यानी दीमक वाला पड़ा। किन्तु मेरा निवेदन है कि हम भारतवासी हज़ारों वर्षों से आपको वाल्मीकि नाम से ही जानते हैं। अगर अब हम अपनी भूल सुधार कर लें और आपको आपकी उपाधि ‘रामकवि’ या आपके असली नाम से भी पुकारने लगेंतो अब आपके नाम और कृति के विषय में और भ्रम फैल सकता है। मेरा निवेदन है कि आप हमें अनुमति दें कि हम भविष्य में भी आपके लिए वाल्मीकि नाम का ही उपयोग करते रहें। इस वाल्मीकि नाम में भी हमारे मन में आपके तप के प्रति श्रद्धा ही है।

जैसी आपकी इच्छाकुलपति,” वाल्मीकि जी ने कहा।
सभागार में तालियाँ बज उठीं। 

तभी प्रोफ॰ पाउला रिचमान* अपनी सीट से उठीं।
मैं हैरान हूँमैं अवाक हूँ। यह एक अकादमिक सम्मेलन है या रामानंद सागर के टीवी सीरियल रामायण का सैटनाटक की पोशाक पहने कोई कलाकार यहाँ आकर अपने को वाल्मीकि कहता हैचंद संवाद बोलता है और आप लोग उसे सच मान लेते हैं। रामानंद सागर की रामायण देखते समय लोग टीवी को मंदिर मान लेते थे। टीवी पर फूल और पैसे चढ़ाते थे। आजआप लोग एक बहुरूपिये को वाल्मीकि मान रहे है! नाटक के इस कलाकार के कहने से आप लोग वाल्मीकि रामायण को मूल रामायण मान रहे हैं! वाल्मीकि की रामायण मूल रामायण नहीं हैं। यह तो बस सैकड़ों रामायणों में से एक है। रामकथा कोई इतिहास  नहीं है। आप कहाँ हैं प्रोफेसर रोमिला थापरकहाँ हो रामानुजनआप लोग बोलते क्यों नहींआप दोनों ने तो इस विषय पर बहुत लिखा हैऔर बोला भी है।
                                      
प्रोफेसर रोमिला थापर उठीं : मैंने टीवी धारावाहिक रामायण के प्रसारण के समय भी कहा था कि टीवी सीरियल से रामकथा की विविधता नष्ट हो रही है। किन्तु टीवी के द्वारा समाज पर रामायण की एक कहानी विशेष को थोप दिया गया। दूरदर्शन पर रामायण धारावाहिक का प्रसारण आधुनिक भारत के इतिहास की एक चिंताजनक और खतरनाक घटना थी।”      

अब प्रोफेसर रामानुजन ने मोर्चा सँभाला।
अगर हम एक मिनट के लिए मान भी लें कि साधु की पोशाक पहने हुए यह व्यक्ति वाल्मीकि ही हैतो फिर इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वाल्मीकि रामायण ही मूल और असली रामायण है। हाँहम ऐसा कह सकते हैं कि हजारों रामकथाओं में से एक कथा वाल्मीकि ने भी लिखी थी। वैसे मैंने अपने लेख में ‘हज़ारों रामायण’ नहीं लिखा है। मैंने लिखा है कि संसार में रामायण की 300 कथाएँ प्रचलित हैंक्योंकि फ़ादर कामिल बुल्के ने रामकथा पर अपनी थीसिस में ऐसा ही लिखा था। असली-नकली रामायण पर मैं एक उदाहरण देता हूँ: प्राचीन यूनानी विद्वान अरस्तू ने एक बढ़ई से पूछा कि तुमने लकड़ी काटने वाली आरी कब ली थी। बढ़ई ने कहा यह आरी उसके पास 30 साल से है। कई बार मैं इसका हत्था बदल चुका हूँऔर कई बार इसकी लोहे की दांती भी। लेकिन यह आरी तो वही 30 साल पुरानी है। यही हाल रामायण का भी है। इसकी कथाएँ हज़ारों बार बदल चुकी हैं। अरस्तू के बढ़ई की आरी की तरह रामायण का कोई भाग असली नहीं है। ये सभी काल्पनिक कथाएँ हैं। उनकी कहानी बार-बार बदल चुकी है। इन सभी रामायणों में एक ही समानता है: सभी में मुख्य पात्रों के नाम रामसीताऔर रावण हैं। बौद्ध परंपरा में दशरथजातक नाम की एक रामकथा है। उसमें इसमे राम और सीता भाई बहन हैं। कन्नड़ लोक गायक तंबूरी दासय्या जो कथा गाते हैं, उसमे सीता रावण की पुत्री है। इस कथा में रावण को रावुलु कहते हैं। रावुलु आम खा कर गर्भवान हो जाता है। रावुलू को छींक आती है और नाक के रास्ते उसके गर्भ से सीता पैदा होती है। सच तो यह है कि कन्नड़ में सीता का अर्थ ही है "वह छींका"!  ये मिस्टर वाल्मीकिसीता और राम को पति-पत्नी बताते हैं। ये सीता को राजा जनक की पुत्री बताते हैं। अपनी रामायण को ही मूल रामायण बता रहे हैं। यह नहीं हो सकता। कौन जाने सीता किसकी पुत्री थीदशरथ कीजनक कीरावण की या किसी और की ? किसी एक कहानी का थोपा जाना हमें सहन नहीं होगा। हम लोग इस सम्मेलन में यही बात ज़ोर से कहने के लिए आए हैं कि रामायण की कोई मूल कथा है ही नहीं।

प्रोफेसर रिचमान और प्रोफेसर थापर ने प्रोफेसर रामानुजन का समर्थन किया।

वाल्मीकि जी अपनी सीट से उठे। 
महोदय मैं पूछना चाहता हूँ कि 300 रामकथाओं में से क्या कोई एक भी ऐसी है जिसके बारे में आप निर्विवाद रूप से यह कह सकें कि वह मेरी रामायण से पहले लिखी गई। प्रोफ. रामानुजन मेरी रामायण को मूल कथा नहीं मानना चाहते तो उनकी इच्छाकिन्तु वे एक ऐसी कहानी को मान्यता दे रहे हैंजिसमें रावण गर्भवती या गर्भवान हो कर नाक के रास्ते सीता को जन्म देता है! क्या आजकल पुरुष गर्भवान हो कर बच्चों को जन्म देने लगे हैं?”

सभा भवन में कुछ हलचल हुई।

वाल्मीकि जी कहते रहे, “कुश-लव गायकों की लंबी परंपरा में हज़ारों वर्षों से मेरी रामायण का गायन हो रहा है। इस बीच नई भाषाएँ और लोकबोलियाँ भी विकसित हुई होंगीऔर मेरी रामायण का उन नई बोलियों में भाष्यांतर भी हुआ होगा। इस बीच गायकों द्वारा गलत अनुवाद अथवा गलत उच्चारण से कथा में बदलाव आ गए हों तो क्या आश्चर्यमित्रो मैं उदाहरण देना चाहता हूँ।

"अगर प्रोफ. रामानुजन जो कन्नड लोक-कथा सुना रहे थे उस कथा में मीठे आम खा कर रावण का 'पेट भर गया' या 'पेट मोटा हो गया' तब क्या इसका मतलब यह लगाया जाए कि रावण गर्भवान हो गया? क्या 'पेट मोटा होना' का एक ही अर्थ होता है? 
"अगर गायक बोले रावण गर्ववान था, और कोई गर्ववान को गर्बवान या गर्भवान समझने की बेतुकी गलती कर दे तो किसका दोष है?  

कोई बताए कि संस्कृत शब्द ‘क्षति’ का क्या अर्थ है?”
क्षति का अर्थ है हानि-कारक।संस्कृत विभाग के मिश्रा जी ने कहा।
और जनन?”
जनन का अर्थ है जन्मपैदा या कारक”  
बिलकुल ठीक। इस तरह क्षति-जनन का अर्थ हुआ हानिकारक। क्षति-जन्य या क्षति-जनक के भी लगभग यही अर्थ हुए। मैंने रामायण में लिखा था कि रावण के अनेक सलाहकारों जैसे कि मारीच, माल्यवान, विभीषण, कुंभकरण और मंदोदिरी ने बार-बार रावण को चेताया था कि सीता का हरण रावण के लिए क्षति-जनन है / क्षति-जन्य है/ क्षति-जनक है। यानी सीता रावण के लिए हानिकारक है।
गाँव-गाँवनगर-नगर रामायण गाते हुए गायकों की एक टोली ने क्षति की जगह क्षुति या क्षौति बोलना शुरू कर दिया होगा। क्या आप जानते है संस्कृत शब्द क्षुति या क्षौति के अर्थमैं बताता हूँ। क्षुति या क्षौति का अर्थ है छींक। अतः क्षति-जन्य के स्थान पर क्षुति-जन्य बोलने से कथा ने रोचक मोड़ ले लिया प्रोफ. रामानुजन जी। मैंने लिखा था कि लंका में सीता की उपस्थिति रावण के लिए हानिकारक थी।  और आज सुन रहा हूँ कि लोक-गायक गा रहे हैं कि सीता रावण की छींक से पैदा हुई थी!!! 
कन्नड़ में सीता का अर्थ अगर 'वह छींका' है तो कोई आश्चर्य नहीं है। संस्कृत में छींक के लिए शब्द है क्षुति। लोक-भाषा के विकास में यह क्षुति कुछ इस तरह बिगड़ गया होगा: क्षुति > शुति > सुति > सितु > सिता > सीता।     

आप शब्दों से जैसा चाहेंअनेक प्रयोग कर सकते हैं। एक मात्रा बदलने से भी अर्थ बदलते जाएंगे।  

रावण ने सीता को जाना
रावण ने सीता को जना  
   
सीता रावण की मति में थी। 
सीता रावण की माटो (पेट) में थी। 

"आचार्यवर, इतनी बड़ी भूल को मान्यता दे करपूरी रामायण को ही काल्पनिक मान लेना कहाँ का न्याय हैअद्भुत बात है! उच्चारण में तो गलती हो सकती हैलेकिन समझ नहीं आता कि कोई यह समझने में कैसे गलती कर सकता है कि कोई पुरुष कैसे गर्भवतीमेरा मतलब गर्भवान हो सकता हैऔर उसकी छींक के रास्ते बच्चे का जन्म कैसे हो सकता हैगर्भाशय और नाक के बीच कोई रास्ता होता है क्या7000 वर्ष पूर्व राम के समय में भारत में शरीर विज्ञान का अच्छा ज्ञान था। कई बार गर्भ से शिशु का जन्म शल्यक्रिया द्वारा भी कराया जाता था। क्या भारत में आज शरीर विज्ञान की पुरानी जानकारी का भी अभाव हो गया है ?

अब यह भी सोचने का विषय है कि रामायण गाते हुए उच्चारण कि किस गलती से सुनने वालों ने राम को सीता का भाई समझने की भारी गलती की होगी।  

संस्कृत में भाई के लिए शब्द हैं: भ्रातभ्राताभ्रातृभातृ और पति के लिए शब्द हैं: भर्ताभर्तृ। क्या इन शब्दों की ध्वनियाँ आपस में मिलती-जुलती नहीं हैं?
अगर रामायण गाने वाले ने बोला भर्ताऔर सुनने वाले ने सुना भ्राता!
गाने वाले ने बोला भर्तृसुनने वाले ने सुना भातृ! इस तरह पति को भाई समझने में कितनी देर लगेगीक्या मैंने कुछ गलत कहा?” वाल्मीकि जी पूछ रहे थे। 

उनका उत्तर संस्कृत के प्रख्यात शब्दकोशकार श्री वामन शिवराम आप्टे ने दिया। 
वाल्मीकि जी आप बिलकुल ठीक कह रहे है। मैं यहाँ आपकी बात में यह जोड़ना चाहता हूँ कि प्राचीन संस्कृत में बंधु शब्द भाई और पति दोनों के लिए प्रयोग होता था। कालिदास ने रघुवंश के 14वे सर्ग के 33 वें श्लोक में श्री राम को सीता का बंधु कहा है: ‘वैदेहि बंधोर्हृदयं विदद्रे
    
इसी तरह प्राचीन संस्कृत में भगिनी शब्द का अर्थ बहन और सौभाग्यवती स्त्रीदोनों हो सकता है।” 

साधुसाधु”  वाल्मीकि जी ने कहा। अब आप लोग समझ गए होंगे कि राम और सीता के भाई बहन होने की कहानी कैसे बनी होगी।”   

श्रोताओं में से एक हाथ उठा। 
"हाँ, कहिए" वाल्मीकि जी ने कहा। 
"हमारे राजस्थान में पति को बींध कहते हैं। बींध और बंधु की ध्वनियों में काफी समानता है।"     

बौद्ध-अध्ययन विभाग के प्रोफ. धम्मभिख्खु ने कहा: अब समझ आया की बौद्ध ग्रंथ दशरथ-जातक में राम-सीता के भाई बहन होने की कहानी का बीज कहाँ से आया!"     

वाइस-चांसलर महोदय काफी देर से चुप थे। उन्होने माइक सँभाला और घोषणा की: 
मैं सम्मेलन के आज पूर्व-निर्धारित सभी कार्यक्रम स्थगित करता हूँ। वाल्मीकि जी के सान्निध्य में यह चर्चा जारी रहेगी।

इतिहास विभाग के अनेक प्रोफेसरों ने उठ कर विरोध किया:  
हम यहाँ  प्रो. रामानुजन,  प्रो. पाउला रिचमानप्रोफेसर रोमिला थापर और प्रोफ. राम शरण शर्मा को सुनने आए हैंवाल्मीकि को नहीं। मिस्टर वाइस चांसलर आपका कदम असंविधानिक है। सम्मेलन पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम से ही चलेगा। हमने आपको केवल उद्घाटन के लिए बुलाया था।"

इस बीच चाय का अवकाश हो चुका था। हॉल लगभग खाली हो गया था। पर वाल्मीकि जी चारों ओर से जिज्ञासुओं से घिरे हुए थे।
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नोट: इस काल्पनिक कहानी में प्रोफ. रामानुजन, प्रोफ. रिचमैन तथा प्रोफ. थापर के कथन उनके छपे हुए लेखों या पुस्तकों पर आधारित हैं। प्रिन्सिपल वामन आप्टे का कथन उनके शब्दकोश में दिये गए बंधु शब्द की परिभाषा पर आधारित है। 


पात्रों के अधिक परिचय के लिए निनलिखित लिंक देखिये:

प्रिन्सिपल वामन शिवराम आप्टे (1858-1892) 
प्रोफ. अट्टीपाट कृष्णस्वामी रामानुजन (1929-1993)
प्रोफ. रोमिला थापर (1931-)
प्रोफ. पाउला रिचमैन 


Thursday, June 14, 2012

महर्षि वाल्मीकि-1: शरीर पर दीमक और राम नाम का उल्टा जाप

 

श्री राम के समकालीन और जीवनीकार, महर्षि रामकवि 7000 वर्षों के बाद भारत लौटे। भारत पहुँचते ही उन्हें यह जान कर धक्का लगा कि भारत के लोग उनकी सम्मानसूचक उपाधि और असली नाम को भूल चुके हैं; लोग अब उन्हें ‘वाल्मीकि’ अर्थात ‘दीमक की बाँबी’ कहते हैं; अब उनका जन्म-दिवस केवल सफाईकर्मी या पूर्व-सफाईकर्मियों के वंशज ही मनाते हैं। उन्हें यह जान कर भी पीड़ा पहुँचि कि इस देश के लोग अब यह समझते हैं कि गुरुकुल में कठिन परिश्रम से विद्या अध्ययन के बजाय, राम-नाम को उल्टा या सीधा जपने से ज्ञान मिल सकता है। रामकवि की भारत में पुनर्यात्रा पर राजेंद्र गुप्ता की खास रिपोर्ट...  


क्या आप जानते हैं कि आज की तरह, रामायण-काल में भी जीमेल (Gmail) से ही पत्राचार से होता था? राम जी और लक्ष्मण जी-टॉक (g-talk) पर बात करते थे। सीता जी की रक्षा के लिए रावण से लड़ कर अपनी जान गवाँ देने वाला गीध जटायु एक गूगल-ब्लॉगर भी था! हनुमान जी, लंका की भौगोलिक स्थिति देखने के लिए, गूगल मैप देखते थे! चौंकिए नहीं। यह सब नवीनतम रामायण में दिया गया है। इस रामायण को  पिछले महीने, मई 2012, में गूगल क्रोमे ने बनवाया है। 

निश्चय ही यह नई गूगल रामायण, श्री राम से हमारे अटूट रिश्ते का प्रमाण है क्योंकि हर काल में, हम प्राचीन रामकथा में कुछ समयानुकूल और देशानुकूल तत्व जोड़ते चले जाते हैं जिससे कथा की प्रासंगिकता बनी रहती है। परंतु प्राचीन रामकथा में नए तत्व जोड़ते रहने की हमारी परंपरा से यह कठिनाई पैदा हो गई है कि कथा में भारी विविधता आ गयी है जिसके चलते हम यह भूल चुके हैं कि मूल रामकथा क्या थी। मूल रामकथा की खोज हमें वाल्मीकी रामायण तक ले जाती है क्योंकि निर्विवाद रूप से, वाल्मीकि रामायण ही सभी प्रचलित रामायणों में सबसे पुरानी है। माना जाता है कि वाल्मीकि जी श्री राम के समकालीन थे और सीता जी ने अपना दूसरा वनवास वाल्मीकि जी के आश्रम में ही बिताया था और वहीं उन्होंने अपने पुत्रों को जन्म दिया। 

भारतीय लोक-चेतना में भले ही श्रीराम की ऐतिहासिकता पर कोई संशय न हो किन्तु सभी विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में इतिहास के विद्यार्थियों को यही पढ़ाया जाता रहा है कि रामकथा को ऐतिहासिक घटना मानने का कोई कारण नहीं है। दिल्ली विश्वविद्यालय में ओहायो विश्वविद्यालय (अमेरिका) की प्रो॰ पाउला रिचमैन द्वारा संपादित पुस्तक अनेक रामायण और उसमें विशेषतः शिकागो विश्वविद्यालय के प्रो॰ ए. के. रामानुजन का लेख तीन सौ रामायण पढ़ाया जाता है। पुस्तक में बताया गया है कि दुनिया में 300 से अधिक रामायण हैं; सबकी कहानी इतनी अलग है, कि किसी भी रामकथा को सच मानने की आवश्यकता नहीं है; वाल्मीकि रामायण को भी विशेष दर्जा नहीं दिया जा सकता क्योंकि वह भी अनेक रामायणों में से एक रामायण है। किसी कथा में राम और सीता भाई बहन हैं, जो शादी कर लेते हैं तो किसी में सीता रावण की पुत्री हैं। इस बात पर कुछ समय काफी विवाद चला। मामला न्यायालय में भी गया। इसके बाद, दिल्ली विश्वविद्यालय ने इतिहास में बीए के पाठ्यक्रम से रामानुजन के लेख को हटा लिया, हालांकि, इतिहास में एम.ए. के विद्यार्थियों को अब भी इसे पढ़ाया जा रहा है। रामानुजन के लेख को बी.ए. पाठ्यक्रम से हटाने का वामपंथी अध्यापकों ने व्यापक विरोध किया। 

एक रात, मुझे ई-मेल से अगली सुबह दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्ट्स फ़ैकल्टी के सभागार में होने वाली एक विरोध-गोष्ठी का निमंत्रण मिला। सभी वक्ता देश के नामी वामपंथी विचारक थे। मैंने गोष्ठी में जाने के मन बनाया। सोने से पहले मैं सोच रहा था कि वामपंथी विचारक वाल्मीकि रामायण को महत्वहीन बनाने के लिए मिशनरी वृत्ति से जुटे हुए हैं। रामायण के प्रति वामपंथियों की हठधर्मी कुछ वैसी बात है जैसा कि घर की सफाई में कूड़े करकट के साथ काम की वस्तु को फेंक देना, या फिर जिसे एक अँग्रेज़ी कहावत में कहते हैं: 'to throw the child with the bath water' यानी बच्चे को नहलाने के बाद बाथ-टब के पानी के साथ बच्चे को भी बाहर फेंक देना! 

इसके विपरीत, मेरी निजी सोच यह है कि राम की ऐतिहासिकता पर खुले दिमाग से शोध की आवश्यकता है और उसके लिए वाल्मीकि रामायण एक बढ़िया प्राथमिक स्रोत हो सकती है। लेकिन यह बात भी पक्की है कि रामकथा की ऐतिहासिकता की खोज के लिए पूरी वाल्मीकि रामायण को तर्क की कसौटी पर कसना ही होगा। मैं नहीं जानता कि रामानुजन और पाउला रिचमैन का विरोध करने वाले भक्त-जन रामायण के तर्कपूर्ण विश्लेषण के लिए तैयार होंगे या नहीं। ख़ैर, अगले दिन होने वाली गोष्ठी के आलोक में रामकथा पर वामपंथी-दक्षिणपंथी हठधर्मिताओं पर सोचते-सोचते मुझे नींद आ गई। नींद में मैंने पाया कि ... 
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मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के सम्मेलन केंद्र के सामने से जा रहा हूँ। मैं एक सम्मेलन का बैनर देख कर रुक गया: '300 विभिन्न रामायणों पर राष्ट्रीय सम्मेलन और प्रदर्शनी'। उसी समय वहाँ वाइस-चांसलर महोदय की कार रुकी और वे अन्य अधिकारियों के साथ सम्मेलन केंद्र में अंदर गए। वाइस-चांसलर जी के अंदर जाते ही एक साधु वहाँ आए और मुझसे संस्कृत में पूछने लगे, "कुलपति महोदय कुत्र अस्ति?" (कुलपति महोदय कहाँ हैं?)। मैं समझ गया कि वे वाइस-चांसलर साहब को पूछ रहे हैं । मैंने उन्हें सम्मेलन केंद्र में अंदर जाने का रास्ता दिखाया।

मैं सोच रहा था कि भारत में सभी विद्यार्थी स्कूल में संस्कृत पढ़ते हैं; संस्कृत के स्कूली ज्ञान के कारण ही आज मैं इस साधु की संस्कृत में कही बात समझ सका। ऐसा बस भारत में ही हो सकता है कि अगर वाल्मीकि जी भी 7000 वर्ष बाद लौट आयें तो उन्हें उनकी भाषा में बात करने वाले कुछ लोग मिल जायेंगे। लेकिन अगर हिब्रू- बाइबिल, या ईसाई बाइबिल के रचनाकारों में से कोई आज की दुनिया में लौट आए, तो कोई उनकी पुरानी भाषा में उनसे बात नहीं कर पाएगा। और तो और, अगर शेक्सपियर, आज लंदन आ पहुँचे तो कोई उनकी 400 वर्ष पुरानी अँग्रेज़ी भी नहीं समझ पाएगा? वाल्मीकि जी की प्राचीन वेषभूषा भी कोई अड़चन नहीं होगी क्योंकि 7000 वर्ष बाद भी, आज के भारत में अनेक साधु-संत उसी पुराने फैशन के कपड़े पहनते हैं।

मैं जिज्ञासा-वश प्रदर्शनी देखने सम्मेलन केंद्र की लॉबी में चला गया। प्रदर्शनी में प्रो॰ पाउला रिचमैन और डा॰ रामानुजन के लेखों पर आधारित नाना कथाएँ दिखाई गईं थी। सभी दिल्ली विश्वविद्यालय के एम.ए. (इतिहास) पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं: किसी कथा में राम और सीता भाई-बहन हैं। किसी में सीता रावण की पुत्री हैं। एक बोर्ड पर रामानुजन के लेख के हवाले से दिखाया गया था कि रावण गर्भवती गर्भवान था; उसे छींक आई; छींक के साथ ही, नाक के रास्ते, रावण के गर्भ से सीता पैदा हो गईं! पूरी प्रदर्शनी में वाल्मीकि, तुलसीदास, कंब, कृतिवास आदि प्रचलित पारंपरिक भारतीय रामायण नहीं थी। पूरा ज़ोर कुछ अज्ञात-अप्रचलित कहानियों पर था। प्रदर्शनी देखने के बाद मैं सभागार में जा कर बैठ गया। 

मंच से वाइस-चांसलर जी का उदघाटन भाषण हो रहा था:      
 
"मित्रों: सबसे पहली रामायण महर्षि वाल्मीकि ने लिखी थी। वाल्मीकि जी आदिकवि थे। उनकी कविता करुणा और पीड़ा से उपजी थी। जब एक शिकारी ने प्रणय-क्रीड़ा करते हुए एक चकोर-पक्षी की जोड़ी पर तीर चलाया, तो वाल्मीकि जी का मन चीत्कार कर उठा: 

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्।।
(हे निषाद, तुम कभी शांति प्राप्त न कर सको, क्योंकि तुमने चकोर पक्षियों के जोड़े में से कामभावना से ग्रस्त एक का वध कर डाला है।)  

मैंने देखा कि जिस साधु ने कुछ देर पहले मुझसे कुलपति जी के बारे में पूछा था वह अपने स्थान से उठे और उन्होने वाइस-चांसलर जी को अधिकार भरे स्वर में टोका: 

“कुलपति महोदय आप ऐसा नहीं कह सकते। व्याध द्वारा क्रोञ्च के शिकार की इस घटना का साक्षी मैं था। यह कविता मेरी है। आप मुझे वाल्मीकि कह कर अपमानित कर रहे हैं।”

सभा में खुसुर-पुसुर शुरू हो गयी। विश्वविद्यालय में पुराने लोग जानते हैं कि कैंपस में अभी तक कई प्रोफेसरों का दिमाग ख़राब हो चुका था। प्रोफेसरों और शोधकर्ताओं को लगा कि एक और प्रोफेसर पागल हो गया है और स्वयं को रामायण का रचयिता समझने लगा है। आयोजन समिति के कई सदस्य साधु की ओर बढ़े। वे उन्हें पकड़ कर कक्ष से बाहर करना चाहते थे। किन्तु साधु की वाणी और व्यक्तित्व में कुछ था जो उन्हें साधु को हाथ लगाने से रोक रहा था। सभापति को भी उत्सुकता थी कि कौन प्रोफेसर पागल हो कर स्वयं को वाल्मीकि रामायण का रचयिता मान कर साधु वेश में चला आया है।

सभापति ने पूछा: आप कौन हैं? अपना परिचय दीजिये।

साधु ने कहा: आश्चर्य! आज भारत में मेरा परिचय मांगा जा रहा है? मुझे विश्वास नहीं हो रहा कि लोग मुझे भूल सकते हैं! मैं सोचता था कि भारत कभी राम को नहीं भूलेगा। और राम के साथ ही रामायण रचयिता रामकवि को भी नहीं। मैं ही रामायण का रचयिता हूँ। मैं रामकवि के नाम से प्रख्यात हूँ।

सभापति कुछ मुस्कराये। यह पक्का हो गया था कि साधु कोई पागल था। एक पागल से निबटने के लिए युक्ति की आवश्यकता थी। सभापति ने कहा। जी हाँ, आप सत्य कह रहे हैं। आपने ही रामायण लिखी थी। हमें क्षमा करिये, गुरु जी। लव और कुश रामायण सुनाने के लिए बाहर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। अरे भाई, गुरु जी को लव-कुश के पास ले जाइए।
(अब तक प्रोक्टर के इशारे पर सुरक्षाकर्मी साधु को घेर चुके थे) 

साधु ने कहा: कुलपति महोदय, मैं भी एक कुलपति था। किन्तु मेरे गुरुकुल में कभी किसी आगंतुक कुलपति को सुरक्षाकर्मियों द्वारा इस तरह घेर कर अपमानित नहीं किया गया। लव और कुश तो हज़ारों वर्ष पहले मेरे साथ थे। लव और कुश बाहर खड़े हैं ऐसा कह कर आप मुझे पागल बना रहे हैं। सभापति जी, मैं अकेला ही फिर से भारत यात्रा के लिए आया हूँ।

तभी एक अजीब बात हुई। अपने गैर-परंपरागत व्यवहार के लिए प्रसिद्ध, वाइस-चांसलर महोदय ने साधु को मंच पर बुला लिया और कहा,  

आपका स्वागत है कुलपति महोदय! आप मंच पर मेरे साथ बैठिए। क्षमा कीजिये, हम रामायण के आदि कवि को वाल्मीकि नाम से ही जानते हैं। इसमें अनादर की कोई बात नहीं हैं। आप प्रातः स्मरणीय हैं। भारत में बचपन से ही हर बच्चे को आपकी कठिन तपस्या के किस्से सुनाये जाते है। कहा जाता है कि तपस्या करते-करते आपके शरीर पर दीमक की बांबिया बन गईं थीं, संस्कृत में दीमक की बांबी को वल्मीक कहते हैं, अतः वल्मीक से ढका होने के कारण लोग आपको वाल्मीकी कहने लगे। यह शब्द तो आपके कठिन तप के सम्मान में है। बताइये कुलपति, क्या यह असत्य है? क्या आपको पहले कभी किसी ने वाल्मीकि नाम से नहीं बुलाया? अगर आप को बुरा लगा तो मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। कृपया बताएं कि आपको किस नाम से बुलाया जाये।


साधु का रोष शांत हुआ। वे मंच पर पहुंचे और उन्होने बोलना शुरू किया:  

'महामति कुलपति जी, आपका बहुत धन्यवाद और आभार। यह विचित्र संयोग है कि मैं वर्तमान काल के भ्रमण पर निकाला, और वर्तमान काल के किसी कुलपति को खोजता हुआ, इस रामायण सम्मेलन तक आ पहुंचा। मैंने यहाँ रामायण पर प्रदर्शनी भी देखी। प्रदर्शनी देख कर मुझे परम संतोष है कि मेरी लिखी हुई राम कथा अमर हो गयी है। महोदय, आपने मुझे आदि-कवि कह कर सम्मान दिया, किन्तु मैं आदि कवि नहीं हूँ। जब मैंने रामायण लिखी तब तक तीन वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, और सामवेद रचे जा चुके थे। (नोट: वाल्मिकी रामायण में इन तीन वेदों के नाम पाये जाते हैं) तीन वेद भी तो काव्य थे। उनके रचनाकार भी तो कवि थे। तो फिर मैं आदि कवि कैसे हुआ? वेदों की रचना में सैकड़ों वर्ष निकाल गए थे। इस बीच वैदिक संस्कृत अत्यंत दुरूह हो चुकी थी। इस कठिन भाषा के शब्दों को समझने के लिए विद्वानों को भी शब्द-कोशों और व्युत्पत्ति कोशों की आवश्यकता होती थी। जिस वैदिक संस्कृत में कभी जन-सामान्य वार्ता करते थे, वह वैदिक संस्कृत, राम युग में साहित्यिक भाषा बन चुकी थी। ऐसे समय में मैंने सरल शब्दों में सामान्य-जन की बोलचाल वाली संस्कृत में काव्य रचना की। अतः, मैं संस्कृत का आदि कवि नहीं, श्री राम के समय में अयोध्या और उसके आस पास बोली जाने वाली संस्कृत की एक लोक-बोली का आदि कवि अवश्य था। कुलपति महोदय, भाषा बहता नीर है। निरंतर बदलती हुई। हर पल पुराने पानी का स्थान नया पानी लेता रहता है। 

वेद की भाषा की तरह ही, निश्चय ही मेरे द्वारा लिखी हुई रामायण की भाषा भी कालांतर में दुरूह या समझ से बाहर हो गयी होगी। किन्तु मुझे प्रसन्नता है कि अनेक विद्वानों ने रामायण को अपने-अपने युग में अपनी-अपनी भाषा में सरल करके पुनः पुनः लिखा। यह आवश्यक था। किन्तु देखता हूँ कि मेरा लेखन कुछ अधिक ही दुरूह हो गया होगा। बाद के लेखक और कवि मेरे लिखे हुए को समझ नहीं पाये होंगे; तभी तो मैंने देखा कि प्रदर्शनी में दिखाई गयी अनेक रामायण, जो मेरे बाद लिखी गयी हैं, सच्चाई से बहुत दूर तो हैं ही, उनमें कथा को बचकाने ढंग तोड़ा मरोड़ा गया है। लगता है कि उच्चारण या वर्तनी की अशुद्धियों के कारण भी बहुत अनर्थ हो गया है। रामायण प्रेमी विद्वत जनों और विद्यार्थियों, मैं आज यहाँ पूरे दिन उपलब्ध हूँ। आप मुझ से कुछ भी पूछ सकते हैं।”

वाइस-चांसलर जी ने कहा: 'महर्षि, पहला प्रश्न मेरा है, पुनः पूछ रहा हूँ। बताइये कुलपति, क्या आपको पहले कभी किसी ने वाल्मीकि नाम से नहीं बुलाया? आपके साथ यह दीमक की बाँबी वाली कहानी का क्या रहस्य है?'

प्रश्न सुन कर रामकवि गंभीर हो गए। उन्होंने कहना शुरू किया:

मान्यवर, दीमक वाली कहानी केवल एक हास्यास्पद कल्पना है। पहली बात हमें अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि दीमक कभी भी किसी जीवित प्राणी या वृक्ष पर घर नहीं बनाती। हो सकता है कि आपने कुछ जीवित वृक्षों पर दीमक देखी होगी। पुनः ध्यान से देखिये। प्रत्येक वृक्ष के तने का बाहरी भाग मृत लकड़ी का बना होता है, और आंतरिक भाग जीवित होता है। दीमक कभी वृक्ष के जीवित आंतरिक भाग पर घर नहीं बनाती। कभी किसी जीवित मनुष्य पर भी दीमक घर नहीं बना सकती। अगर आपने यह विश्वास कर लिया है कि मेरा शरीर दीमक से ढका था, तो आपको यह भी मान लेना चाहिए कि मैं मर चुका था, और मेरा शरीर सड़-गल चुका था।   

सभा में सन्नाटा छा गया। सुरक्षा कर्मचारी, चपरासी और सफाई कर्मचारी भी रामकवि का भाषण सुनने के लिए अंदर आ गए। रामकवि कहते जा रहे थे:   

हे महामति, मैं कुलपति था। मेरे समय में कुलपति उस आचार्य को कहते थे जिसके गुरुकुल में कम से कम 10,000 शिष्यों की शिक्षा, आवास, भोजन, वस्त्र और अन्य आवश्यकताओं का प्रबंध हो। सुनता हूँ कि आपके विश्वविद्यालय में तो इससे बहुत ही कम विद्यार्थियों के आवास का प्रबंध है। शायद सभी विद्यार्थियों के पाँच प्रतिशत के लिए भी नहीं। आवास के लिए आप विद्यार्थियों से धन भी लेते हैं। आपके यहाँ विद्यार्थियों के लिए वस्त्र इत्यादि का तो कोई प्रबंध ही नहीं है।  

वाइस-चांसलर ने पल भर के लिए सिर झुकाया और बोले: 

महर्षि मैं जानना चाहता था कि वाल्मीकि शब्द कहाँ से आया?’

मैं वही बता रहा था, आचार्यवर! इसके पीछे एक कहानी है। आवासी विद्यालय का संचालन बहुत कठिन होता है। ऊर्जा से भरे आवासी युवा छात्रों को खाली समय में शरारतें सूझती हैं। अनेक बार कुलपति को शरारती छात्रों को अनुशासित करने के लिए कुछ अप्रिय कदम उठाने पड़ सकते हैं। कुलपति से नाराज़ हो कर आवासीय शिक्षालयों के विद्यार्थी प्रायः अपने कुलपति को कोई शरारती उपनाम देते हैं। आप बार-बार पूछ रहे हैं, अतः मुझे संकोच से बताना पड़ रहा है कि मेरी अनुपस्थिति में मेरे कुछ शिष्य मुझे वाल्मीकि यानी दीमक कहते थे। कुलपति महोदय और अन्य आचार्य-गण, आप के शिष्यों ने भी आपके रोचक शरारती उपनाम रखे होंगे।'

सभा में खुसुर-पुसुर हुई, छात्रों के समूह से दबी हुई हंसी की आवाज़ें आयीं।
महर्षि कहते जा रहे थे: 

'मेरे समय से पहले तक तीन वेदों की रचना हो चुकी थी। वेद लिखने के लिए कोई अच्छी लिपि नहीं थी। उस समय पुस्तकें नहीं लिखी जाती थीं। अतः सभी विद्यार्थी वेदों को सुन कर तथा बोल कर याद किया करते थे। वेदों को सुनने और बोलने के माध्यम से बचाये रखने में भारी श्रम और ऊर्जा खर्च होती थी। वेदों को सुन कर याद करने के कारण उन्हें श्रुति कहने लगे थे। जब मैंने रामायण की रचना की तब मैंने भी रामायण को शिष्यों से कंठस्थ करवाया। 

किन्तु अब तक एक अच्छी चित्र-लिपि का आविष्कार हो चुका था। व्यापारी अपने सामान पर पहचान के लिए मोहर लगा रहे थे जिस पर किसी पशु का चित्र और चित्रलिपि में पशु का नाम लिखा होता था। मुहर पकी हुई मिट्टी, पत्थर या तांबे की बनी होती थी। मैंने पहली बार इस नई लिपि से  रामायण महाकाव्य लिखने का प्रयोग किया। मैं पत्तों पर, वृक्षों की छाल पर या पशुओं खाल पर काव्य लिखता था। लिखना सरल था, परंतु लिखी हुई कथा को बचाना बड़ी समस्या थी। 

नदियों और सरोवरों वाले क्षेत्र में बने मेरे आश्रम में काफी नमी थी। आश्रम में  दीमक का बहुत प्रकोप था। किन्तु उस समय मैं दीमक को बहुल कृमि कहता था क्योंकि यह छोटा सा सामाजिक कीड़ा सदा ही बहुल संख्या में चलता है, कभी अकेला नहीं।


मेरी लिखी हुई पुस्तकों को यह बहुल कृमि यानी दीमक खा जाता था। मैं हर समय शिष्यों को सफाई रखने के लिए कहता था। कहीं भी दीमक दिखती थी तो मैं अधीर हो कर 'बहुल कृमि' 'बहुल कृमि' चिल्लाता था। मैं शिष्यों को आदेश देता कि 'बहुलकृमि' को तुरंत हटा कर उस क्षेत्र की सफाई कर दें। जैसे-जैसे रामायण के पृष्ठ बढ़ते गए, शिष्य मेरे मुख से अधिक बार बहुलकृमि-बहुलकृमि सुनते गए।'  

'आप लोग आंखे बंद करके मेरे गुरुकुल के उस समय के वातावरण का ध्यान करिये। मेरे शिष्य दीमक हटाने के मेरे आदेशों से परेशान हैं। 

शिष्य दीमक साफ करते हुए बड़बड़ा रहे हैं:

'गुरु  जी का आदेश हैं, बहुल कृमि साफ करो

बहुल कृमि साफ करो 
बयुल किमी साफ़ करो 
बयलकिमी साफ़ करो
बालकिमी साफ़ करो
बालमीकी साफ़ करो
वाल्मीकि साफ़ करो  
इस तरह शिष्यों ने बहुलकृमि को वाल्मीकि कहना शुरू कर दिया। वे जब भी मुझे देखते आपस मे खुसुर-पुसुर करते: वाल्मीकि, वाल्मीकि। उन्होने मेरा उपनाम ही वाल्मीकि रख दिया था। 
 
सर्दियों की एक रात में मैं आश्रम में कम्बल ओढ़ कर बैठा हूँ। मैं सुन रहा हूँ कि कुछ शिष्य वहाँ से मस्ती करते हुए जा रहे हैं। ध्यान लगा कर सुनिए कि वे क्या कह रहे हैं:
    
एक: वह देखो आचार्य बैठे हैं।   
दूसरा: आचार्य का शरीर कम्बल से पूरी तरह ढका है।
तीसरा: आचार्य का शरीर पूरी तरह ढका है, कमबल से या बलकम से।
चौथा: आचार्य का शरीर पूरी तरह ढका है, बलकम से या बलमक से।
पांचवा: आचार्य का शरीर पूरी तरह ढका है, बलमक से या बल्मीक से।
सभी मिल कर: आचार्य का शरीर पूरी तरह बल्मीक से ढका है।   
अरे हटाओ वल्मीक। हटाओ वाल्मीकि। हटाओ आचार्य के शरीर से वल्मीक हटाओ ! हा हा वाल्मीकि हटाओ !
सभी मिल कर खिलखिलाकर हँसे: हाँ हाँ, वाल्मीकि हटाओ! 

मुझे क्रोध आ रहा था किन्तु साथ ही प्रसन्न भी था कि मेरे शिष्य शब्दों से खेल में निपुणता प्राप्त कर रहे थे। खेल-खेल में उन्होने कम्बल शब्द को  वल्मक में बदल दिया था। इन्हें ध्वनि की समझ थी। शरारती प्रवृत्ति पर संयम रखने से यह शिष्य आने वाले समय में भाषा विज्ञान के आचार्य का प्रशिक्षण ले सकते थे। कौन थे ये होनहार? मैंने उन्हें देखने के लिए शरीर से कंबल हटाया, किन्तु शिष्य मुझ से डर कर अंधेरे में गायब हो गए। 

'मित्रों, अभी आँखें बंद रखिए। एक और दृश्य देखने का प्रयत्न कीजिये। 

'मुझे रामकवि की उपाधि से सम्मानित किया जाना है। मुझे सम्मान प्राप्त करने के लिए अयोध्या जाना है। गलती से शिष्य समझ रहे थे कि मैं आश्रम से जा चुका हूँ। मैं सुन रहा हूँ कि मेरी अनुपस्थिति में शरारती छात्र मेरे उपाधिनाम से उल्टा-सीधा खेल रहे हैं:
रामकवि
रामकवि रामकवि 
विरामक वरामकी 
वलामकी वलामकी
वल्मीकि वल्मीकि
वाल्मीकि वाल्मीकि
हा हा हा ! वाल्मीकि !

मैं निरंतर ब्रह्म ज्ञान की खोज करता रहा। और मेरे शिष्य रामायण की प्रतियों को दीमक से बचाने की मेरी आज्ञा के पालन से परेशान होते रहे। दीमक हटाते हुए शरारती शिष्य मेरे नाम का उल्टा जाप करते रहे। और जगत में इस उल्टे नाम को प्रसिद्ध करते रहे।  

रामकवि चुप हो गये। सभाभवन  में चुप्पी थी।   

वाइस चांसलर साहब ने चुप्पी तोड़ी:
ओह। हमें खेद है रामकवि। आचार्यों के शरारती उपनाम बनाने की परंपरा अभी कायम है, कुलपति। अपने छात्र-जीवन में, मैंने भी अपने आचार्यों को शरारती उपनाम दिये थे। मेरे शिष्यों ने भी मुझे विचित्र उपनाम दिये हैं। लेकिन आज आपसे एक अद्भुत बात सुनी। हमने तो बचपन से यही सुना था कि 'उल्टा नाम जपत जग जाना। वाल्मीकि भए ब्रह्म सुजाना।' आप राम-राम के स्थान पर उसका उल्टा मरा-मरा जपते थे। और ब्रहमज्ञानी बन गए। अब जाना कि उल्टे नाम जाप का क्या अर्थ था। आपने भगवान राम के नाम का उल्टा मरा-मरा जाप नहीं किया, बल्कि आपके नाम का उल्टा और तोतला जाप करके शिष्यों ने रामकवि शब्द का वाल्मीकि बना दिया!

रामकवि का मुख आश्चर्य से खुल गया। 
'क्या कह रहे है आप? राम-राम का जाप! मरा-मरा का जाप! मैंने तो ऐसा कभी नहीं सुना!'  
   
वाइस चांसलर जी महर्षि रामकवि को पूरी कहानी सुनना चाहते थे जिसके अनुसार कहा जाता है कि वाल्मीकि जी पूर्वकाल में एक अनपढ़ लुटेरा थे। नारद मुनि ने उन्हें राम-राम जपने की प्रेरणा दी। अज्ञानता से वे राम-राम न जप कर, 'मरा-मरा' उल्टा नाम जपते रहे। मरा-मरा जाप को ही भगवान ने राम-राम जाप मान कर उन्हें सिद्धियाँ दे दीं, त्रिकालदर्शी बना दिया।

लेकिन विवेकी वाइस-चांसलर ने कहानी को सेंसर कर दिया। या यूं कहिए कि महर्षि के मुँह पर उनके लुटेरा होने की कहानी बताना उन्हें अभद्रता लगी। उन्होने केवल इतना पूछा: 

'मान्यवर हमने सुना है कि आप भगवान राम का राम-राम नाम जपने के स्थान पर उनका उल्टा नाम मरा-मरा जप कर त्रिकालदर्शी और ब्रह्मज्ञानी हो गए। निश्चय ही यह भी झूठ होगा। किन्तु कृपया हमारी जिज्ञासा शांत करने की कृपा करें।'      

कुलपति रामकवि ने कहा:

'राम-राम भूल कर मरा-मरा जपने की बात तो मेरे शरीर पर दीमक की बाँबी बनने की बात से भी अधिक हास्यास्पद है। सुनता हूँ कि आजकल आप लोग श्री राम को भगवान मानते हैं। उनके मंदिर बना कर उनकी प्रतिमा की पूजा करते है! पहली बात यह है कि श्रीराम भगवान नहीं थे। मैंने तो कभी ऐसा नहीं सुना था। न ही मैंने रामायण में ऐसा कहीं लिखा। मैंने यह अवश्य लिखा है कि सेतु-बंध से पहले कुछ नादान लोगों ने उन्हें भगवान कहने की कोशिश की परंतु श्री राम ने उन्हें ऐसा कहने से मना कर दिया था। इसी प्रकार मैंने युद्धकाण्ड में लिखा कि युद्ध में विजय के बाद कुछ लोगों ने उन्हें भगवान कहा था।

जब श्री राम एक बच्चा थे तबसे मैं उनके पिता राजा दशरथ का मित्र था। श्री राम को किसी के द्वारा पहली बार भगवान कहे जाने से कई दशक पहले ही मैं शिक्षा ग्रहण करके आचार्य के रूप में अपना गुरुकुल स्थापित कर चुका था। श्री राम के जीवन काल में उन्हें पुरुषोत्तम कहा गया, भगवान नहीं माना गया। फिर नारद मुनि या कोई और मुझे राम नाम जपने के लिए कैसे कह सकते थे? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कुलपति जी, कि अगर नाम जाप से ही विद्या मिल सकती है तो फिर आप यह फार्मूला अपने विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को क्यों नहीं देते? क्यों सभी आचार्य स्वयं भी कड़े परिश्रम से विद्या अर्जित करते हैं और विद्यार्थियों से कड़ा परिश्रम करवाते हैं? मेरे गुरुकुल में भी विद्या, दक्षता, कौशल प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत करनी होती थी। मुझे नहीं पता कि विद्या प्राप्त करने के लिए नाम जपने जैसा आसान रास्ता भी हो सकता है!"  
(.... जारी)