यम कथा-2
अभी तक
–
देवताओं
और दानवों की पौराणिक कथाओं को मानव सभ्यता के प्रारंभिक चरण की कहानियों के रूप
में देखा जा सकता है। इन कहानियों के पीछे की मूल घटनाओं की खोज में, जीव-वैज्ञानिक आनंद प्राचीन काल की दुनिया में, पुरखों
के साथ एक और यात्रा पर निकला। उसने देखा कि मानवों ने वनवासी जीवन छोड़ कर कृषि को
अपनाया है और मानव सभ्यता की पहली पुरी या बस्ती बसायी है।
पहले
भाग का लिंक यम कथा – 1
अब आगे… यम कथा-2
आनंद
अपने मित्र दीपक को अपना यात्रा वृतांत सुना रहा है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश इसी बस्ती
में रहते हैं। आप भी सुनिए …
“इस पुरी
या बस्ती में सबसे बड़ा परिवार ब्रह्मा का है। सुना है कि सबसे अधिक संतान होने के कारण
सब लोग उन्हें महाप्रजा कहते थे किन्तु अब यह शब्द बिगड़ कर ब्रह्मा हो गया है।
महा (बड़ा)
+ प्रजा
(सन्तान, प्रजा, सन्तति,
बच्चे)
= महाप्रजा
> प्रजामहा > ब्रजामहा > ब्रहामहा > ब्रहमा
कृषि
के आरंभ से ही यह निश्चित हो गया है कि जिस परिवार में सबसे अधिक सदस्य होंगे वही कृषि
में सबसे सफल होगा और समाज में उसका ही वर्चस्व होगा। यहाँ सबसे बड़ा परिवार ब्रह्मा
का है। कोई आश्चर्य नहीं कि मानव सभ्यता की यह पहली पुरी या बस्ती ब्रह्मपुरी कहलाती
है।“
“मैदानी
पशुचारी और कृषक सभ्यता में हिंसक पशुओं का खतरा कम हो गया है। लेकिन हिंसक पशुओं
से भी बड़ी चुनौतियों ने आ घेरा है। कभी बीमार न होने वाले मानव अब बीमार हो रहे
हैं। वन में कभी किसी व्यक्ति को रोग हो भी जाता तो उसे मिट्टी, पानी और पौधों से
ही अपना उपचार करना आता था। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं का वैद्य था। वन्य जीवन में
प्रत्येक मनुष्य जंगल, जमीन, जल, पौधे और जीव-जंतुओं का सहयात्री था। किन्तु सभ्य
समाज में स्थिति बदल गयी है। यहाँ वन्य औषधियों का साथ छूट चूका है और स्थानीय
औषधियों की पहचान नहीं हुई है। स्वयं अपना वैद्य होना काम नहीं आ रहा है। हिंसक
पशुओं द्वारा शिकार न हो जाने के कारण लोग बूढ़े हो रहे हैं। उन्हें तरह-तरह की
बीमारियों भी हो रहीं हैं। अनेक घरों में
अशक्त मृतप्राय रोगी पड़े हुए हैं, अनेक घरों में मृत शरीर भी पड़े हैं। परिजन
निर्जीव शरीरों से चिपककर बिलखते रहते हैं। शवों से दुर्गंध आती है। समाज में
संक्रामक रोग फैल रहे हैं। कोई नहीं जानता कि मृतप्राय और मृत शरीरों का क्या करें।
वन्य जीवन की तरह, इस सभ्य समाज में अशक्त या मरे हुए को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ने
की विवशता नहीं है। मरणासन्न हों या मृत सभी अपने हैं, सभी प्रिय हैं।
दीपक
ने टोका, “वर्तमान समय में भी हमारी दिल्ली में भी कई बार समाचार आते हैं कि किसी कालोनी
में कोई व्यक्ति अपने परिजन की मृत्यु के बाद भी उसके शव के साथ रह रहा था; दुर्गंध
आने पर, पड़ोसियों ने पुलिस को बुलाया।”
आनंद
बोला, “ऐसे प्रत्येक केस में व्यक्ति मानसिक रूप से विक्षिप्त होता है और समाज से
पूरी तरह कटा हुआ होता है। किन्तु विश्व सभ्यता की इस पहली पुरी में मृत शरीरों का
घर में पड़े होना मानसिक विक्षिप्तता के कारण नहीं था। किन्तु यह इसलिए था कि सभ्यता
के संक्रमण काल में लोग नई चुनौतियों से निपटने की तरीकों से अभी तक अनजान थे। लेकिन
शीघ्र ही उन्होंने इस समस्या का उपाय भी खोज लिया। मैं वही बताने जा रहा हूँ।“
आनंद
को दीपक का टोकना अच्छा नहीं लगा। वह बोला,
“दीपक
मुझे मत टोको। मैं अभी पुरखों के साथ की अनुभूति से अभिभूत हूँ। मैं मानसिक रूप से
अभी तक वहाँ से नहीं लौटा हूँ।“
“इन हजारों
वर्षों में अनेक शब्द बदल गए हैं। और अनेक शब्दों के अर्थ भी बदल गए हैं। आगे की बात
समझने के लिए मृत और मृतक शब्द का अंतर समझना होगा। आजकल हम मृत और मृतक को
पर्यायवाची मानते है। पुरखों के उस प्राचीन समाज में ऐसा नहीं था। मृत का अर्थ था
जो मर चुका है। जो मृतप्राय या मरणासन्न अर्थात जो मरने वाला था उसके लिए मृतकल्प शब्द था। मूर्छित
व्यक्ति भी मृतकल्प था। मृतकल्प को ही संक्षेप में मृतक कहने का चलन था।“
दीपक
ने फिर टोका, ‘रुको। मुझे भ्रम हो रहा है। आज की भाषा में मृत और मृतक का अर्थ एक ही
है। अपने विवरण में आप इन शब्दों के अलग प्रयोग करोगे तो इससे कहानी और विमर्श में
बहुत भ्रम बढ़ेगा और उलझन होगी।“
आनंद
ने कहा “हम मृत और मृतक को एक ही शब्द मान रहे हैं, इसीलिए तो हम पिछले हजारों
सालों से भ्रम और उलझन में जी रहे हैं। अब समय आ गया है कि हम इनके दो अलग अर्थ को
पहचाने। सच यह है कि समय के अनुसार शब्द बदलते हैं। अनेक शब्दों के प्राचीन और
आधुनिक अर्थ एक दूसरे के विलोम हैं। मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ। फिर मृत्यु से संबंधित
एक और शब्द पर लौटूंगा जिसका अर्थ बदल गया है। पूर्व काल में आरोपी का अर्थ था-- आरोप
लगाने वाला, और आरोपित का अर्थ था -- जिस पर आरोप लगाया गया है। किंतु आधुनिक समय
में आरोपी और आरोपित का एक ही अर्थ हो गया है -- जिस पर आरोप लगाया गया है; आरोप
लगाने वाले के रूप में आरोपी का अर्थ लुप्त हो चुका है। ठीक। अब आगे बढ़ें?
“ठीक
है।“ दीपक ने कहा।
“उस
समय की संस्कृत में एक शब्द था ‘श्वा’ जिसका अर्थ था हवा। श्वा > ह्व़ा >
हवा।
लेकिन
अब श्वा का अर्थ कुत्ता है। हवा के अर्थ में श्वा शब्द विलुप्त हो चुका है, लेकिन इसकी
छाप अनेक शब्दों में देखी जा सकती है, जैसे श्वास, श्वसन, स्वसन, स्वस्थ, श्वसिति,
आश्वसिति, आश्वासन।
आनंद
ने आगे कहा, “वन में जब किसी मानव या प्राणी का कोई मृत शरीर कहीं पड़ा रह जाता था
तो वह सड़ने के बाद मृदा या मिट्टी में बदल जाता था। लेकिन हर शरीर में मृदा कारक
पदार्थ के अतिरिक्त कुछ स्थाई पदार्थ भी था जो सड़ता नहीं था। यह स्थाई रह गया
पदार्थ ही ‘स्थाई’ शब्द में बदलाव के बाद अस्थि, ऑस्टियो और हड्डी हो गया।
स्थाई
> हथाई > हडाई > हड्डी। इसी तरह से स्थाई से ही हठी शब्द बना। स्थाई >
हठायी हठी।
स्थाई
> अस्थाई > अस्थी (पुरबिया हिन्दी में स्थाई को अस्थाई कहते हैं)
अस्थि
> ओस्थी > ओस्थियो osteo
“बहुत
रोचक”, दीपक ने कहा।
हमेशा
की तरह आनंद ने कहा, “हम विषय से और अधिक भटकने से पहले फिर पुरखों के पास लौटते हैं।
आनंद ने एक बार फिर आँखें बंद की और वह ब्रह्मपुरी में लौट गया। वह बोल रहा था ...
“घर-
घर में मृत और मृतक पड़े हुए हैं। संक्रामक
रोग फैल रहे हैं। मृत और मृतक का परिवार और समाज के बीच अधिक पड़े रहना बहुत बड़ा
खतरा है। किन्तु शवों के दाह संस्कार या दफनाने का आविष्कार अभी नहीं हुआ है। अपने
प्रिय मृतकों और मृतों को उठा कर जानवरों के खाने के लिए वन में तो नहीं छोड़ा जा
सकता। ब्रह्मपुरी में कोई साधारण स्वयं-वैद्य इतनी बड़ी महामारी से नहीं निपट सकता।
बस्ती में दो बड़े वैद्य हैं जिनसे कुछ आशा की जा सकती है, लेकिन वे दोनों ही
उपलब्ध नहीं हैं। एक हैं शिव। वह बस्ती बहुत दूर, वन की सीमा पर पीपल के पेड़ के
नीचे रहते हैं। उनके पास विष का अचूक उपचार है। सांप के काटने से और जंगली विषैले फलों
के खाने के कारण जिन लोगों के प्राण संकट में पड़ जाते हैं, ऐसे हजारों लोगों को शिव
ने मरने से बचाया है। यह रोचक है कि शिव के अनेक नामों में एक नाम वैद्यनाथ भी है।
मरते हुए को जीवन देने वाले शिव को लोग ईश्वर ही मानते हैं। लेकिन उनका निश्चय है वे
कभी बस्ती में नहीं आयेंगे। वैसे भी, शिव आए दिन यात्रा करने वाले, अखण्ड यायावर
हैं। आजकल भी यात्रा पर हैं। वे कब अपने धाम पर लौटेंगे, कोई नहीं जानता। एक और वैद्य
राज हैं, हरि। उनके पास भी अनेक विषहारी औषधियों का अनुपम ज्ञान है। हरि को लोग विष्णु कहते हैं।
विष
+ नहीं = विषनहीं > विषणयी > विष्णु
दीपक
आप को याद हैं न कि विष्णु सहस्रनाम में विष्णु का एक नाम वैद्य भी है। वह दिन-रात
औषधीय अनुसंधान में लगे रहते हैं। विष्णु ने तुलसी, हल्दी और अनेक औषधीय पौधों की
खोज की है। जब से विष्णु ने एक विशालकाय पक्षी गरुड़ को पालतू बनाया और उसका वाहन के
रूप में उपयोग करने लगे हैं, वह एक हवाई यात्री बन गए हैं; वह भी आए दिन यात्रा
करने वाले। विष्णु गरुड़ पर बैठ कर औषधीय और सुगंधित पौधों की खोज में जाते रहते
हैं। कुछ समय पहले उन्होंने कहीं बहुत दूर औषधीय और सुगंधित पौधों की घाटी खोज निकाली
है। वहाँ अनेक दुर्लभ और अनुपम औषधीय पौधे हैं। विष्णु इस घाटी को विगंधा कहते हैं।
सुना है कि विष्णु विगंधा में ही अपना स्थायी आवास बनाना चाहते हैं। लोग विष्णु के
नए धाम विगंधा को गलत उच्चारण से बैकुंठ
कहते हैं।
वि +
गंधा = विगंधा > बिगंध > बैगुंध > बैकुंध > बैकुंठ
विष्णु
हमेशा ब्रह्मपुरी में लौटने पर सभी पुरवासियों के लिए अनेक औषधियां लाते हैं। लेकिन
कोई नहीं जानता कि विष्णु अब अगली बार कब आएंगे।
(क्रमशः)
पहले भाग का लिंक यम कथा – 1
क्षारी-सागर में एनाकोण्डाओं की शैया पर आराम करते हुए भगवान विष्णु
No comments:
Post a Comment