Thursday, September 15, 2022

पितरों के साथ -- यम कथा – 5

 यम कथा – 5

लेखक – राजेन्द्र गुप्ता

“यमपुरी के लिए निर्धारित स्थान पर यम ने अपना शिविर स्थापित कर लिया है। ब्रह्मपुरी के मुख्य वास्तुविद और अभियंता विश्वकर्मा निर्माण की बागडोर संभाले हुए हैं। किन्तु यमराज स्वयं निर्माण कार्य की निगरानी कर रहे हैं। निर्माण-स्थल पर यम के स्थायी निवास के साथ ही नरक बनाने के काम ने जोर पकड़ लिया है। यमराज और चित्रगुप्त के लिए अस्थायी पर्णकुटियाँ बन कर तैयार हैं। अन्य अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए भी अनेक पर्णकुटियाँ तैयार हैं। अभी नरक वाला बाड़ा बन रहा है। पूरी यमपुरी बाद में बनेगी। हाँ, यमपुरी की चारदीवारी पर कंटीली झाड़ियों की बाड़ अवश्य लगायी जा रही है। पास के वन से बाँस काट कर लाये जा रहे हैं। श्रमिक मिट्टी की कच्ची ईंटे बना कर उन्हें पका रहें हैं। नरक वाले बाड़े में मृतकों के लिए कक्ष और शालाएं बनायी जा रही हैं।

चित्रगुप्त भी आ पहुंचे हैं। चित्रगुप्त ब्रह्मपुरी के पंजीयक और लेखपाल हैं। लेकिन अब उनकी स्थायी नियुक्ति यमपुरी में की गयी है। ब्रह्मपुरी का काम चित्रगुप्त के एक पुत्र को दिया गया है। चित्रगुप्त इनका असली नाम नहीं है। किन्तु चित्रगुप्त कहलाये जाने के पीछे एक रोचक कारण है। चित्रगुप्त ने मानव इतिहास में पहली बार लिखने के लिए लिपि का आविष्कार किया। इस लिपि में बांस के बड़े-बड़े पत्तों, पेड़ की छाल, लकड़ी, मिट्टी के कच्ची पतली ईंटों या पत्थर की सतह पर रेखाचित्र बनाए जाते हैं या उकेरे जाते हैँ। प्रत्येक शब्द के लिए एक अलग विशेष रेखाचित्र बनाया जाता है। रेखाचित्र के कारण इसे लिपि को चित्रलिपि कहते हैं। यह बहुत गूढ़ लिपि है। इसमें सैकड़ों अक्षर हैं। इसे चित्रगुप्त के परिवार के अतिरिक्त बहुत कम लोग पढ़ सकते है। अतः इसे गुप्त लिपि माना जाना है।  अतः गुप्त चित्रलिपि के कारण इसके आविष्कारक को चित्रगुप्त कहते हैं। चित्रगुप्त ने यमराज के कक्ष बाहर एक पटल पर धर्मराज लिखवा कर लगा दिया है। किन्तु जो भी लिपि को पढ़ सकते हैं, वह भी धर्मराज को यमराज ही पढ़ते और बोलते हैं। चित्रगुप्त के पास बाँस के पत्रों (पत्तों) को एक संग्रह है जिसमें रेखाचित्रों में ब्रह्मपुरी के सभी निवासियों की पूरी जानकारी और डेटा छिपा है। पत्रों का संग्रह पत्रिका कहलाता है।

आनंद कह रहा था, “भारत के सभी कायस्थों का विश्वास है कि वे सभी चित्रगुप्त की संतति हैं। प्रत्येक कायस्थ परिवार अपनी वंशावली को सीधे चित्रगुप्त से जोड़ता है। मेरा बहुत मन है कि चित्रगुप्त, चित्रलिपि और कायस्थों के संबंधों पर चर्चा करूँ। किन्तु वह फिर कभी। मुझे डर है कि लिपि-चर्चा के कारण हम नरक में मृतकों की दशा के आंखों देखे हाल से वंचित हो जाएंगे। बस आज यह समझ लो कि लेखन से संबंधित सभी शब्द और चित्रगुप्त के वंशज कायस्थ समाज के लगभग सभी कुलनामों का उत्स केवल कुछ शब्दों में खोजा जा सकता है; जैसे -- चित्र, रेखा, मसी (स्याही) और पत्र (पत्ती)। चिट, चिट्ठी, टिकट, रजिस्टर, आदि शब्दों में चित्र शब्द छुपा हुआ है; नागरी में रेखन शब्द छिपा है।

दीपक ने कहा, “आनंद तुम फिर से बहुत दूर की कौड़ी लाये हो। मैं आपको गलत नहीं कहूँगा। मैं उस दिन की प्रतीक्षा करूंगा जिस दिन आप लिपि की विस्तृत चर्चा करोगे। खैर, अभी यह बताओ कि रजिस्टर या टिकट का चित्रगुप्त से क्या सम्बन्ध है?

शब्दों से खेलने वाली जुड़वा बहने जीभा-भाषी के लिए यह संकेत काफी था। आनंद के कानों में जीभा-भाषी के खेल की ध्वनियाँ गूंजने लगी। और आनंद दीपक के सामने वही ध्वनियाँ दोहरा रहा था। --

·      चित्र > चित > चिट chit

·      चित्र > चित्री > चित्ती > चिट्ठी

·      चित्र > चित्री > चित्ती > चिट्ठी > किट्ठी > टकिठी > टिकठ > टिकेट ticket

·      चित्र > चित्रे (मराठी कायस्थ कुलनाम)

·      गुप्त > गुप्ते (मराठी कायस्थ कुलनाम)

·      राज्यचित्र > राजीचित्र > राजीसित्र > राजीसितर > राजीसिटर > रजिस्टर

·      रेखा > लेखा

·      रेखाचित्र > खारेचित > खायेचिथ > कायेसिथ > कायस्थ

·      रेखाचित्र > रेखाचित्री > खारेचित्री> खारेचिठी > खारेसिठी > खरोष्ठी (एक प्राचीन लिपि)

·      रेखन > रेगन > नेगर > नागर > पटु + नागर > पटुनागर > भटनागर (उत्तर भारत में मराठी कायस्थ कुलनाम)

·      रेखाश्रेष्ठ > लेखाश्रेष्ठ > लेकाश्रेष्ठ > केलश्रेष्ठ > कुलश्रेष्ठ (उत्तर भारत में मराठी कायस्थ कुलनाम)

·      रेखाकरनी > लेखाकरनी > लेकाकरनी > केलाकरणी > कुलाकर्णी > कुलकर्णी (मराठी कायस्थ कुलनाम)

·      रेखा > खरे (मध्य प्रदेश में कायस्थ कुलनाम)

·      रेखा > गरे > गेर > गौर (मध्य प्रदेश में कायस्थ कुलनाम)

·      पत्र > पतर > पतरा

·      पत्र > पत्रु > पतरु > मथरू > माथुर (उत्तर भारत में मराठी कायस्थ कुलनाम)

·      पत्र > पत्रु > पतरु > मथरू > माथुर  (मराठी कायस्थ कुलनाम)  

·      पत्र > पत्रिका

·      पत्रिका > पतिका > पजिका > पंजिका

·      मषि > मसि > बसी > बही

·      मषि > मषिन > मनषी > मुंशी (कायस्थ कुलनाम)

·      मषि > मसी > बसी > बसु > बोस (बंगाली कायस्थ कुलनाम)

·      श्री + मषि + उत्तम = श्रीमशौत्तम > श्रीबसौत्तम > श्रीबसौतब > श्रीवास्तव (कायस्थ कुलनाम)

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आनंद ने एक बार फिर स्वयं को भटकने से सावधान किया और बोला, “फिर नरक की ओर चलते हैं, जहाँ चित्रगुप्त मृतक के परिजनों से बात कर रहे हैं।“

आंखें बंद कर, आनंद ने बोलना शुरू किया।

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यमपुर के द्वार पर अर्थी को एक चबूतरे पर रखा गया है। अब यहां मृतक का पंजीकरण या रजिस्ट्रेशन होना है।

मृतक का रजिस्ट्रेशन हो रहा है। चित्रगुप्त ने मृतक के साथ आये जनों से पूछ-पूछ कर यमराज के नाम आवेदन लिखवाना शुरू किया। आवेदन का प्रारूप पहले से तैयार है।

प्रारूप > फ्रारुम > फॉर्म form

चित्रगुप्त के दो पुत्र साथ बैठ कर प्रशिक्षण ले रहे हैं। मृतक के परिजन चित्रगुप्त के प्रश्नों का उत्तर दे रहे हैं। प्रशिक्षु पुत्र पंजिका में लिख रहे हैं।

“आज अमुक तिथि ..... को अमुक नाम .... का व्यक्ति; मृतक का नाम बताइए; …जिसके पिता का अमुक नाम ….. मृतक के पिता का नाम बताइए; जो अमुक गोचर …. का है; मृतक का गोचर बताइए; यमपुरी के द्वार पर आया है।  कृपया इसे स्वीकार करें। [गोचर > गोजर > गोदर > गोतर > गोत्र]

मृतक के पुत्र ने सारी जानकारी दी।

चित्रगुप्त अपना राजचित्र/ रजिस्टर ले कर द्वार के अन्दर चले गए। भीतर जा कर उन्होंने अपने ब्रह्मपुरी वाले जनसंख्या रजिस्टर में पंजीकृत नागरिक विवरण में मृतक के जीवन के लेखा-जोखा से मिलान किया। चित्रगुप्त को तय करना है कि मृतक को नरक में आम जनता वाली साधारण सुविधाएँ दी जाये या विशेष सुविधाएँ। बड़ी शाला में रखेँ या निजी कक्ष में। चित्रगुप्त के अंदर जाने के बाद, अब यमलोक का एक नरककर्मी द्वार के बाहर उपस्थित हुआ । उसने सभी लोगों को कहा,

“’घड़े में जो पानी है यह आपके ब्रह्मपुर से मृतक के घर से आया है। यह संक्रमित हो सकता है। इसको यमपुरी में ले जाने की अनुमति नहीं है। न ही इसे वापस ले जाने की आज्ञा है। घड़े को यहीं पर तोड़ दो। वापसी में इस घड़े का पानी पीने से संक्रमण का खतरा है। आप खाने के लिए जो भी पका हुआ सामान साथ लेकर आए हैं, उसको यही पर फेंक दीजिए।“

अतः उबले हुए चावल के पिंड भी फेंक दिये गये। केवल सूखा सामान आटा, तेल, आदि ही मृतक के लिए अंदर जा सकता है। उसके बाद उसने मृतक के सभी कपड़े उतरवाने और उसे नदी में स्नान करवाने का आदेश दिया। स्नान करवाने के बाद अन्य नरककर्मी मृतक को नरक के द्वार के अन्दर ले गए।

नरक कोई अस्पताल नहीं है जिसमें मृतप्राय रोगियों के उपचार के लिए सघन चिकित्सा केंद्र (आई सी यू ICU) की सुविधा हो। नरक केवल क्वारंटाइन और शव प्रबंधन केंद्र है। यहाँ लाये जाने पर मृतक की सघन शारीरिक जांच की जाती है। नरक में लाये जाने पर कुछ लोग मृत पाए जाते हैं (ब्रोट डैड brought dead)। अगर मृतशरीर या शव है तो उसका तुरत निपटारा किया जाता है। अगर मृतक अर्थात मरणासन्न है तो उसे नरक में तब तक के लिए वास मिलता है जब तक वह मर नहीं जाता। कुछ लोग क्वारंटाइन में लाए जाने के कुछ घंटों में या कुछ दिनों में मर जाते हैं। कुछ स्वस्थ हो कर लम्बे समय तक जीते हैं। लेकिन स्वस्थ हो जाने पर भी उन्हें बाहर जाने की अनुमति नहीं है। उनके वापस ब्रह्मपुरी जाने पर वहाँ रोगों के संक्रमण का खतरा है।

यहाँ सफाई व्यवस्था पर बहुत आग्रह है। घरों से आई हुई अर्थियाँ और फूस के गद्दों का नरक से प्रवेश निषेध है। जब भी कोई मृतक मर जाता है, उसकी शय्या भी उनके साथ ही जला दी जाती है। उसके शव का अन्य तरीके से निपटारा कर दिया जाता है ताकि उसका संक्रमण बाकी लोगों में ना फैले। नरक में आने वालों के लिए सदा ही नयी शय्या, कपड़ों, भोजन और अन्य वस्तुओं की आवश्यकता रहती है।

आज जो मृतक यहाँ लाया गया है, वह मूर्छित है। उसकी सांस अभी चल रही है। उसकी जांच के बाद, नरककर्मी एक बार फिर यमपुरी के द्वार पर आये और मृतक के लिए अनेक आवश्यक सामान की आपूर्ति के लिए परिजनों को निर्देश दिए। फिर यमपुरी का द्वार बंद कर दिया गया।

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उधर ब्रह्मपुरी में रात को भी आग जला कर रखने या दीपक जला कर रखने की प्रथा अभी शुरू नहीं हुई है। रात को चारों ओर घुप्प अँधेरा रहता है। अतः घर की महिलाओं ने रात को घर के बाहर यमपुरी वाली दक्षिण दिशा में दीपक जला कर रख दिया है। अगर मृतक को ले जा रहे किस व्यक्ति को वापस लौटना पड़े तो रात को दूर से ही घर पहचान सकें। रात को दीपक जला कर रखने का क्रम तब तक जारी रहेगा जब तक सभी लोग यमपुरी द्वार पर मृतक को छोड़ कर वापस न आ जायें।

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जो सगे संबंधी यमदूतों के साथ मृतक को यमलोक तक छोड़कर आए थे, उन्हें जाने और लौटने में छह दिन लग गए। अगले कुछ दिनों में यमपुरी के नरक कर्मियों की दी गई सूची के अनुसार मृतक के लिए सभी आवश्यक सामान को जुटाया गया। दसवें दिन परिवार में सभा हुई। विचार किया गया कि ने मृतक की आवश्यकताओं की वस्तुओं को यमपुरी में मृतक तक कैसे पहुँचाया जाये। इस काम के लिए पशुचर / पशुप्रज समाज से तेरह चरवाहे बुलाए गये हैं। इन्हें सभी दिशाओं में दूर देशों तक का रास्ता पता है। पशुओं के प्रजनन में विशेषज्ञ यह पशुचारी जन ब्राह्मण कहलाते है।

प्रज > प्रजमान > ब्रजमान > ब्राजमन > ब्राहमन > ब्राह्मण

प्रज > प्रजर > ब्रजर > ब्रीजर > ब्रीडर breeder

तीन दिन बाद अर्थात मृतक की यमपुरी यात्रा के तेरहवें दिन ये प्रजमान / ब्राह्मण मृतक के लिए सभी आवश्यक सामान लेकर यमलोक जायेंगे।

तेरहवें दिन उन सभी ब्राह्मणों को बुलाकर भोजन कराया गया। यात्री दल के मुखिया ब्राह्मण को सभी सामान सौंपा गया। मृतक के पुत्र ने एक-एक चीज सौंपते हुए ब्राह्मण से संकल्प लिया और किया।

“हे अमुक गोचर / गोत्र ….. के अमुक नाम ….. के ब्राह्मण, मैं अमुक नाम ….  जो अमुक गोत्र …. के अमुक मृतक ….. का पुत्र है, तुम्हें यह अमुक वस्तु ….. सौंपता हूँ, इसे जाकर यमपुरी में मेरे पिता को अर्पण कीजिए। फिर ब्राह्मणों को मृतक के लिए अन्न, मिठाई, फल, कपड़े, बर्तन, शय्या, गद्दा, चादर, तकिया, कंबल, जूते और अन्य वस्तुएं दी गई। मृतक के पुत्र ने कहा, “ हे ब्राह्मण, मार्ग में, दिन में तप्त बालू है और रात में अंधेरा है अतः मैं आपको मार्ग के लिए यह छत्र और ज्योति भी दे रहा हूँ। 

छत्र > छत्री > छतरी

ज्योतिर > तिर्ज्यो > तिर्च्यो > तोर्चो > टोर्च

आनंद ने कहा, “दीपक वर्तमान में न ब्रह्मपुरी है न यमपुरी। किन्तु, जो प्रोटोकॉल मैंने ब्रह्मपुरी और यमपुरी में देखा था वही प्रोटोकॉल हजारों साल बाद वर्तमान में भी चल रहा है। आजकल जो सामान ब्राह्मणों को दिया जाता है वह ब्राह्मण के घर में ही रहता है। इतने लंबे अंतराल में मृतक के लिए भेजे जाने वाले सामान की मूल सूची में कुछ अन्य वस्तुएं जुड़ती जा रहीं हैं। पूर्व में केवल यमपुरी गये मृतकों के लिए वस्तुएं भेजी जाती थीं। अब मृतक के पूर्वजों के लिए भी अन्न, तिल और शहद का बना एक-एक पिंड भेजा जाता है । जिनके नाम ये पिंड भेजे जाते हैं वे हैं -- मृतक के पिता, दादा, दादी, परदादा, परदादी, नाना, नानी, सास, ससुर। और एक अतिरिक्त पिंड चित्रगुप्त के लिए भी।

आनंद कहता जा रहा था, “नरक में रहने वाले मृतकों के लिए भोजन, कपड़ों और अन्य वस्तुओं की पूरे वर्ष के लिए आपूर्ति का उत्तरदायित्व मृतकों के परिवार वालों का ही है। हर महीने आवश्यक सामान की आपूर्ति की जाती है। किन्तु यह व्यवस्था गर्मी और बरसात के मौसमों में टूट जाती है। गर्मी के महीनों में मार्ग में तेज जलने वाली हवाएं चलती हैं जिन्हें लू कहते हैं।

ज्वालू हवा > जवालू > य्यालू > लू

उसके बाद बरसात के कीचड़ और दलदल भरे महीने भी आवागमन संभव नहीं है। इसलिए, ब्रह्मपुरी और यमपुरी के प्रशासन ने मिल कर एक नियम बनाया है। यह नियम ब्रह्मा के पुत्र और सप्त-ऋषियों में से एक अत्रि ऋषि की सलाह पर बनाया गया है। सबसे पहले यम के भाई मनु ने इसका पालन किया। इस नियम के अनुसार जब वर्षा ऋतु के बीतने पर अश्विन का महीना शुरु होता है, और सूर्य कन्या राशि में जाता है या कहें कि सूर्य कन्यागत होता है, उस समय 15 दिन तक यमपुरी में रह रहे मृतक पितरों के लिए सामान की आपूर्ति की जाती है। इन दिन को पितृपक्ष के रूप में मनाया जाता है। इस समय सूर्य के कन्यागत होने के कारण इस काल को कनागत भी कहते हैं।

पितृपक्ष में, सभी लोग अपने-अपने घर के मृतक के लिए पूरे वर्ष भर का राशन, कपड़े, और उपयोग के अन्य वस्तुएं मृतक तक पहुंचाने के लिए ब्राह्मणों को दे रहे हैं । ब्राह्मण मृतकों के लिए दी गयीं इन वस्तुओं को उसी तरह के यमपुरी पहुंचा रहे है जिस तरह यमपुरी जाने के 13वें दिन उन्होंने सामान को पहुंचाया था। इसी तरह वर्ष में एक बार यमदूतों द्वारा मृतक को ले जाये जाने की बरसी भी मनाई जाती है। उस दिन भी, मृतक के लिए राशन, कपड़े, और उपयोग के अन्य वस्तुएं ब्राह्मणों को दी जाती हैं।

“हे दीपक, यमपुरी में आने-जाने के कड़े निषेध है। इन नियमों के कारण, किसी भी व्यक्ति के यमपुरी में प्रवेश के बाद उसका समाचार मिलना लगभग असंभव ही है। किन्तु कभी-कभी यमदूतों से पता चलता है कि यमपुरी में गया हमारा प्रियजन अब मर चुका है और उसके शरीर का निपटान किया जा चुका है। इसलिए, अब उसके लिए सामान की आपूर्ति की आवश्यकता नहीं है। फिर भी लोगों ने हर वर्ष सामान भेजने की प्रथा को जारी रखा हुआ है ताकि यह सामान उन गरीब मृतकों के काम आ जाए जिनके घर के लोग उनके लिए समुचित सामान भेजने  में अक्षम हैं । एक तरह से, यह भाव अपने प्रिय परिजन के लिए उसकी स्मृति में और उसके सम्मान में श्रद्धांजलि है। अतः इसी रीति को श्राद्ध कहा जाता है।“

“आओ दीपक, हम भी अपने पितरों को नमन करें।“    

(शेष है। क्रमशः)

यम कथा – 1

यम कथा – 2

यम कथा – 3

यम कथा - 4  

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Tuesday, September 13, 2022

पितरों के साथ -- यम कथा – 4

यम कथा – 4 

जब पहली बार मानव को यमपुरी ले जाया गया

लेखक – राजेन्द्र गुप्ता

अभी तक :– देवताओं और दानवों की पौराणिक कथाओं को मानव सभ्यता के प्रारंभिक चरण की कहानियों के रूप में देखा जा सकता है। इन कहानियों के पीछे की मूल घटनाओं की खोज में, जीव-वैज्ञानिक आनंद प्राचीन काल की दुनिया में, पुरखों के साथ एक और यात्रा पर निकला। वह मानव सभ्यता की पहली पुरी या बस्ती ब्रह्मपुरी में जा पहुँचा। वापस आने पर आनंद अपने मित्र दीपक को यात्रा का आँखों देखा हाल सुना रहा है। विश्व सभ्यता का पहला क्वारंटाइन और शव प्रबंधन केंद्र खोलने का निश्चय किया गया है। इस निष्क्रियपुरी या नरकपुरी इसका उत्तरदायित्व धर्म अर्थात यम को दिया गया है।

पहले भाग का लिंक : यम कथा – 1

दूसरे भाग का लिंक : यम कथा – 2

तीसरे भाग का लिंक : यम कथा – 3

यम कथा - 4 :- मानव को पहली बार अर्थी पर यमपुरी ले जाने की कथा

धर्मपुरी अर्थात यमपुरी और उसमें निष्क्रियपुरी अर्थात नरकपुरी के निर्माण में समय लगेगा। किन्तु तब तक मृतकों (मृतप्राय रोगी) और मृतों को घरों से हटाने का काम नहीं टाला जा सकता। यम ने अपना कार्य संभालने में देर नहीं की। उसने पशुचर अर्थात पुष्कर के भैंस चराने वालों में से कुछ को बुलाया। यह लोग अपनी पगड़ी में भैंसे के सींग बांधते हैं जिसके कारण हिंसक पशु इन्हें दूर से देखकर सींग वाला पशु ही समझते हैं और आक्रमण करने में कोई जल्दबाजी नहीं करते। 


छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले का एक वनवासी युवक जिसने पगड़ी में भैंसे के सींग बंधे हुए हैं 

अनेक बलिष्ठ भैंस पालकों को यम ने अपना दूत नियुक्त किया है। यमदूत घर-घर से मृतकों और मृतों को खींच कर बाहर निकाल रहे हैं और अपने भैंसो से पर बांधकर ले जा रहे हैं। यम ने भी भैंस-पालक यमदूतों की तरह ही भैंस के सींग वाली पगड़ी बांध ली है और भैंसे पर सवार होकर यमदूतों का नेतृत्व कर रहा है। अब यमदूतों को लग रहा है कि उनका स्वामी भी उनमें से ही एक है। इस तरह, अपनत्व वाले नेतृत्व को पाकर यमदूत अप्रिय काम को भी मन लगाकर कर रहे हैं। 

यम (बायें) और यमदूत (दायें) 

ब्रह्मपुरी में चारों और हाहाकार मच गया है। मानव इतिहास में इससे अधिक अमानवीय घटना आज तक नहीं हुई है। लेकिन इस आपातकालीन उपाय ने मानव जाति को नष्ट होने से बचा लिया है। पुरी से दूर ले जा कर कुछ मृतकों और मृतों को पहाड़ की से नीचे फेंक दिया गया, कुछ को जमीन में दबा दिया गया और कुछ को आग में जला दिया गया। इस वीभत्स घटना के त्रास को मानव समाज की सामूहिक चेतना हजारों वर्षों बाद और सैकड़ों पीढ़ियों के बाद भी कभी भूल नहीं पायी है। आज तक, सिर पर भैंसे के सींग वाली पगड़ी पहने और हाथ में रस्सा लिए यमदूत का भयानक रूप मानव को डराता है। यमदूतों द्वारा पहाड़ की चोटी से नीचे फेंकने और आग में जिंदा जलाने के दृश्य आज भी धार्मिक पुस्तकों के पृष्ठों से जनमानस को डराते हैं।

ब्रह्मपुरी की सफाई के बाद यम ने मृतकों को ले जाने के लिए एक नई व्यवस्था की। अब से भैंसे पर बाँध कर ले जाने की अमानवीय आपातकालीन व्यवस्था को कभी दोहराया नहीं जायेगा। मृतकों को पूरे सम्मान से नरक में ले जाने का प्रबंध होगा। परिजन और प्रियजन भी अगर चाहें तो नरक के द्वार तक मृतक को छोड़ने जा सकेंगे। नियम बन गया है कि सभी लोग अपने घर में किसी भी असाध्य-अशक्त रोगी, मृतक या मृत की सूचना ब्रह्मपुरी की गण-परिषद को दें। गण-परिषद यम को सूचना देती है। यम अपने दूत भेजता है। यमदूत मृतों और मृतकों को पूरे सम्मान से नरक में ले जाते हैं। लेकिन प्रियजन के वियोग के भय से अनेक लोग अपने घरों में मृतों और मृतकों की सूचना नहीं दे रहे। गण-परिषद को मृतों और मृतकों की खोज और सूचनाओं के लिए गुप्तचर नियुक्त करने पड़े हैं।“

आनंद कहता जा रहा था, “दीपक आज मैं यमदूतों के साथ यात्रा कर रहा था। सूचना मिली थी कि एक घर में एक मृतक अर्थात मरणासन्न व्यक्ति है जो संक्रमित है। हम उस घर में पहुंचे। यमदूतों को द्वार पर देख कर मृतक के घर के लोग चीत्कार कर उठे। मृतक भी विलाप करने लगा। उसने यमदूतों से बार-बार विनती की। लेकिन उसकी एक नहीं सुनी गयी। नरक ले जाये जाने को किसी भी सूरत में अवश्यम्भावी जान कर मृतक और उसके परिजनों ने समर्पण कर दिया। उन्होंने यमदूतों से बस कुछ समय रुकने की प्रार्थना की। मृतक के सभी सगे संबंधियों, मित्रों और अन्य प्रियजनों को मृतक से अंतिम भेंट के लिए बुलाया गया। कुछ लोगों से भेंट के बाद मृतक मूर्छित हो गया। देर से आने वालों के लिए यह मिलन अंतिम भेंट न होकर अंतिम दर्शन बन गई है। यमपुरी के मार्ग में जाते हुए, मृतक आराम से लेटी हुई स्थिति में स्थिर रहना चाहिए। इसके लिए विशेष व्यवस्था की गयी है। अतः बांस का एक उपकरण बनाया जा रहा है।

शब्दों से खेलने वाली जुड़वा बहने जीभा-भाषी ने मुझे पूछा कि यह क्या बना रहे हैं”।

मैंने कहा “यह यात्रा के लिए मृतक को स्थिर रखने लिए ‘स्थिरा’ है। आप इसे  स्थिरधर भी कह सकती हो। मृतक के परिजनों के हृदय-विदारक विलाप के बीच भी जीभा और भाषी शब्दों के अविरल खेल में मस्त हो गयीं। आप भी इनके शब्द-विलास को सुनिये कि कैसे स्थिरा और स्थिरधर शब्द अर्थी और स्ट्रेचर  में बदल रहें हैं। अर्थी ही संसार का सबसे पहला स्ट्रेचर है। 

       ·    स्थिरा > स्थिरी > ह्थिरी > य्थरी > यर्थी > अर्थी

  ·      स्थिरधर > स्टिरजर > स्ट्रीचर > स्ट्रेचर  stretcher 

अभी तक चारपाई का आविष्कार नहीं हुआ है। घर में भूमि पर फूस बिछा कर सोने का चलन है। घास-फूस की मोटी सतह या गट्ठा ही शय्या है (गट्ठा > गद्दा)। मृतक की घरेलू शय्या का फूस अर्थी पर नहीं डाला जायेगा। इसमें रोगों के जीवाणु हैं। अर्थी पर नए फूस का गद्दा बनाया गया है। उसके ऊपर नया मृगचर्म डाला गया। मृतक को अच्छी तरह नहलाया जा रहा है ताकि ब्रह्मपुरी के कीटाणु यमपुरी में न पहुँच जाये। यमपुरी में पुराने संक्रमित कपड़ों की भी अनुमति नहीं है। अतः मृतक को नए कपड़े पहने गए हैं।उसे अर्थी पर लेटाया गया। उसके ऊपर नया मृगचर्म ओढ़ाया गया। मृतक ठिठुर रहा है। मार्ग में ठंड न लगे उसके लिए सभी रिश्तेदार एक-एक करके नई शाल उढ़ा रहे हैं। यमपुर पहुँचने में कई दिन लगेंगे। मार्ग में, मृतक के भोजन के लिए उबले हुए चावल में तिल और शहद मिलाकर पेड़े या पिंड बनाए गए हैं। चावल के दो पिंड मृतक के सिरहाने रखे गए हैं। पुष्कर सरोवर में उगे कुछ मखाने (कमल के कच्चे बीज) भी साथ रखे गये । अर्थी पर बांस के दो लंबे डंडों के ऊपर खड़ी हुई छोटी डंडियाँ बाँधी गई हैं। हर खड़ी डंडी की नोक पर एक फल स्थापित किया जा रहा है। अब मृतक के पास रास्ते में खाने के अर्थी पर ही चावल के पिंड या फल का विकल्प है।“

दीपक ने कहा, “रोचक बात है कि हजारों वर्षों बाद भी मृत व्यक्ति के अंतिम यात्रा के लिए वही पुराने डिजाईन की अर्थी का प्रयोग हो रहा है। वही रीति -रिवाज। बस चावल के पिंड की जगह जौ के आटे के पिंड बनाए जाते हैं।

आनंद बोला, “मैंने देखा है कि बंगाल में आज भी चावल उबाल कर उससे पिंड बनाये जाते हैं। अनेक प्रदेशों में जहाँ चावल नहीं उगाया जाता वहां चावल का स्थान जौ और गेहूं ने ले लिया है।“

“ मैं देख रहा हूँ, कि एक व्यक्ति रास्ते के लिए एक घड़े में पीने का पानी और एक हांड़ी में आग के अंगारे साथ लेकर चल रहा है ताकि मृतक के पैदल सहयात्री रास्ते में खाना पका सकें और पानी पी सकें।

घर की बहुओं ने मृतक के चरण स्पर्श किए, अपनी गलतियों और कटु वचनों के लिए माफी मांगी। चरणों पर कुछ मुद्राएं भी रखीं और कहा कि अगर कोई मार्ग में अथवा यमपुरी में आपको कुछ आवश्यकता हो तो यमदूतों से कहकर इन मुद्राओं द्वारा कुछ खरीद लीजिए। इसके बाद मृतक को रस्सी से बांधा जा रहा है, ताकि वह रास्ते में अर्थी पर स्थिर रहे -- गिर ना जाए। लेकिन उसके मुँह को खुला छोड़ दिया है। 

चार परिजनों ने मृतक को अर्थी पर बांधकर अर्थी को कंधों पर उठा लिया है। कुछ परिजन पीछे चल रहे हैं। मृतक यात्रा के आगे, पीछे , दायें और बाएं, चार यमदूत अपने भैंसों पर सवार हैं।

आनंद ने कहा, “बाद के वर्षों में अर्थी को भी विमान की तरह बनाने का फैशन चल पड़ा। जो मृतक जीवित रहते हुए पक्षी-विमानों में उड़कर जाते थे, उनकी अर्थी को विमान का आकर दिया जाता। विमान को फूल-पत्तियों से सजाया जाता। ऐसा लगता कि अर्थी पर लेटा  हुआ मृतक किसी पक्षी-विमान पर उड़ कर जाने वाला है। और बहुत बाद में केवल अति वृद्ध जनों की अर्थी को आदर सहित विमान की तरह सजाये जाने लगा।

आनंद ने देखा, कि अर्थी के आगे, एक व्यक्ति एक चँवर डुला कर मृतक के मुँह से मक्खियाँ हटा रहा है। एक व्यक्ति घंटा बजाता हुआ चल रहा है ताकि ब्रह्मपुरी की संकरी गलियों में लोग रास्ता छोड़ दें और अर्थी वाहकों को अपने कंधो पर बहुत देर तक अर्थी को ना उठाना पड़े। यह घंटा एक तरह से आधुनिक काल में एमुबुलेंस के सायरन का आदिरूप है।

यम के बड़े भाई मनु आजकल मनु स्मृति नाम से विधि-संहिता लिख रहे हैं। यम के अनुरोध पर मनु ने उसमें एक नया नियम भी लिखा, “जब भी मृतक यात्रा कहीं से जा रही हो सभी लोग और वाहन अपने स्थान पर रुक जाए। मृतक को मार्ग में प्रथम वरीयता दी जाए।

“परिजन रो रहे हैं। यमदूतों से प्रार्थना कर रहें हैं कि यमपुर की और मुड़ने से पहले एक बार मृतक को विष्णु के घर ले चलो। शायद विष्णु वैकुंठ से आये हुए हों और मृतक को बचा लें । यमदूतों ने मना किया। उन्हें बताया गया कि यह मृतक की अंतिम इच्छा है, अंतिम आग्रह है। मृतक विष्णु से क्षमा मांगना चाहता है और जो कुछ भी उन्होंने मृतक के लिए और मृतक के समाज के लिए किया था उसके लिए धन्यवाद करना चाहता है। यमदूत अंतिम आग्रह मानने के लिए तैयार हो गए है। शायद उन्हें भी विष्णु के दर्शन की लालसा है। मृतक की ओर से अंतिम आदरांजलि के लिए अर्थी को विष्णु के निवास हरि-मंदिर के द्वार पर रखा गया। हरि-मंदिर के बाहर लगा घंटा बजाया गया। किन्तु किसी ने द्वार नहीं खोला। विष्णु अपने घर ‘हरि मंदिर’ में नहीं हैं। मृतक ने हरि-मंदिर को नमन किया।

फिर एक अर्थीवाहक ने जोर से पुकारा, “हरि का नाम सत्य है”।

दूसरा अर्थीवाहक बोला, “सत्य बोलो गत्य है।“

‘गत्य है’ के घोष के साथ अर्थी को फिर से उठाया गया। एक बार फिर अर्थीवाहकों के पैरों में गति आ गई।   

मृतक ने एक और अंतिम इच्छा बताई। एक बार, बस अंतिम बार, मुझे अपने कार्यस्थल को -- अपनी दुकान को अपनी आंखों से देखेने दो। उसकी इस इच्छा को भी माना गया। अर्थी को उसकी दुकान के सामने ले जाया गया। एक पल वहाँ रुक कर यह मृतक-यात्रा यमपुरी की ओर मुड़ गई।

(शेष है। क्रमशः) 

आपको यह काल्पनिक कथा कैसी लग रही है। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।     

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Monday, September 12, 2022

पितरों के साथ -- यम कथा – 3

 यम कथा – 3

नरक -- विश्व का पहला क्वारंटाइन और शव प्रबंधन केंद्र

लेखक – राजेन्द्र गुप्ता

अभी तक :– देवताओं और दानवों की पौराणिक कथाओं को मानव सभ्यता के प्रारंभिक चरण की कहानियों के रूप में देखा जा सकता है। इन कहानियों के पीछे की मूल घटनाओं की खोज में, जीव-वैज्ञानिक आनंद प्राचीन काल की दुनिया में, पुरखों के साथ एक और यात्रा पर निकला। वह मानव सभ्यता की पहली पुरी या बस्ती ब्रह्मपुरी में जा पहुँचा। ब्रह्मा और विष्णु इसी पुरी में रहते हैं; और शिव इसके ठीक बाहर। वापस आने पर आनंद अपने मित्र दीपक को यात्रा का आँखों देखा हाल सुना रहा है। इस समाज में अभी तक अस्पताल नहीं बना है। शवों के दाह संस्कार या दफनाने का आविष्कार भी नहीं हुआ है। अनेक घरों में मृत शरीर और मृतप्राय रोगी पड़े हुए हैं। संक्रामक रोग फैल रहे हैं।

अब भाग तीन में पढ़िए :- नरक कैसे बना? विश्व के पहले क्वारंटाइन और शव प्रबंधन केंद्र के खुलने की कहानी।

पहले भाग का लिंक : यम कथा – 1

दूसरे भाग का लिंक : यम कथा – 2

चारों ओर अराजकता फैलती जा रही है। लोग मृतकों को जीवन देने वाले ईश्वर समान वैद्यों विष्णु और शिव के लिए आर्तनाद या आरती कर रहे हैं। अशांति से चिंतित ब्रह्मा दोनों महान वैद्यों का आह्वान करना चाहते हैं, अर्थात बुलाना चाहते हैं। लेकिन कोई नहीं जानता कि शिव किस प्रदेश की यात्रा पर हैं। ब्रह्मा जानते हैं कि विष्णु वैकुंठ में हैं, किन्तु वहाँ का मार्ग कोई नहीं जानता। केवल विष्णु को ही वहाँ के आकाश मार्ग की जानकारी है। ब्रह्मा ने मन ही मन विष्णु का आह्वान किया। संयोग से उसी दिन गरुड़ पर सवार विष्णु प्रकट हुए। विष्णु ने आते ही अचेत व्यक्तियों को दो समूहों में बाँटा। एक -- जिनमें कुछ चेतना बाकी थी अर्थात मृतक / मृतप्राय / मरणासन्न। दो – जिनमें कोई चेतना नहीं थी। विष्णु, जिन्हें श्रीपति भी कहा जाता है, ने अनेक श्रीद्रु औषधियों से मृतकों का उपचार शुरू किया। इनमें से दो श्रीद्रु को आज हम तुलसी और हल्दी के नाम से जानते हैं । किन्तु इन मृतप्राय रोगियों की संख्या बहुत अधिक थी। सबकी चिकित्सा कर पाना असंभव था। ये स्वस्थ लोगों को भी संक्रमित कर रहे थे।

विष्णु ने एक क्रांतिकारी उपाय सुझाया। मरणासन्न निष्क्रिय रोगियों को स्वस्थ लोगों से अलग करना होगा। इसके किए एक नई बस्ती या पुरी का निर्माण करना होगा। यह नई बस्ती निष्क्रिय पुरी कहलाएगी। निष्क्रियपुरी ब्रहमपुरी से दूर किसी दुर्गम स्थान पर होगी। वह स्थान इतना दूर और दुर्गम होगा कि दोनों पुरियों के लोग आपस में एक दूसरे से मिल न सकें। ऐसा नहीं किया गया तो पूरा समाज नष्ट हो जाएगा।

अंततः ब्रह्मा, उनके पुत्रों और पुरवासियों ने निराशा, विवशता और भारी मन से विष्णु के निष्क्रियपुरी बनाने के सुझाव को स्वीकार किया। विष्णु ने दूसरा महत्वपूर्ण सुझाव दिया कि सभी निर्जीव शरीरों को धरती में दबाया जाये। लेकिन भावुक लोग प्रियजनों के मृत शरीरों को किसी भी तरह छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। अंततः गण परिषद ने तय किया कि मृत शरीरों को भी निष्क्रिय पुरी में भेजा जाये और अगर दस दिनों तक उनमें कोई चेतना न लौटे तब निष्क्रिय पुरी का प्रशासन उनका उचित निपटान कर सकता है। आपदकाल में कठिन और निष्ठुर निर्णय लेने आवश्यक था।

इस निर्णय पर जनता में हाहाकार मचा गया। ब्रह्मा ने निष्क्रियपुरी प्रकल्प को कार्यान्वित करने के लिए ब्रह्मपुरी की न्याय व्यवस्था संभालने वाले विधि और न्याय मंत्री धर्म को बुलाया। धर्म ब्रह्मा के मानसपुत्र मरीचि का प्रपौत्र था। वह सूर्य का पुत्र और मनु और शनि का भाई था। वह ब्रह्मपुरी की परिषद का सबसे युवा, ऊर्जावान और प्रतिभावान सदस्य था। धर्म निष्क्रिय पुरी के निर्माण और उसकी अध्यक्षता के लिए तैयार नहीं था। किन्तु जब ब्रह्मा ने उसे ब्रह्मपुरी के पशुचर से दक्षिण दिशा की पूरी पृथ्वी का स्वामी घोषित कर दिया तो वह तैयार हो गया। ‘दक्षिण का दिशापाल धर्म’ – यह संबोधन उसके कानों में नगाड़ों की तरह बजने लगा, जिसमें निष्क्रियपुरी भेजे जाने वालों और उनके परिजनों की चीख पुकार डूब रही थी। मन ही मन धर्म सोच रहा था कि जैसे ब्रह्मा ने जिस पुरी को स्थापित किया है उसका नाम ब्रह्मपुरी है इसी तरह वह जिस नई पुरी को वह स्थापित करने जा रहा है उसका नाम धर्मपुरी होगा। धर्मपुरी, वाह ! क्या बात है। धर्मपुरी ब्रह्मपुरी से भी बड़ी होगी। निष्क्रियपुरी तो धर्मपुरी का एक उपनगर होगा। धर्म फूले नहीं समा रहा था। उसका मन रोमांच और उत्साह से भर गया।  

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सुमेरु पर स्थित ब्रह्मपुरी के बाहर विशाल पशुचर से दूर, दक्षिण में एक दुर्गम स्थान को निष्क्रियपुरी चुना गया है। पशुचर के दूर तपते बालू के रेगिस्तान को पार करके एक नदी आती है जो वर्षा ऋतु के अलावा लगभग प्रवाहहीन या जमी हुई रहती है। इस नदी के पार एक पहाड़ है। वहाँ तक पैदल पहुँचने में ब्रह्मपुरी से पूरा दिन लगेगा। निष्क्रियपुरी वहीँ बसायी जाएगी।“

दीपक ने कहा, “बहुत रोचक। मुझे लगता है कि निष्क्रियपुरी प्राचीन विश्व का पहला क्वारंटाइन केंद्र था (quarantine center)

दीपक की बेटी रूचि भी यह वार्ता सुन रही थी। उसने कहा, “हाँ अंकल कोविड काल में हर नगर में क्वारंटाइन केंद्र खोले गए थे।“

आनंद ने कहा, “हाँ बेटी, जब कोविड नहीं था क्वारंटाइन केंद्र तब भी थे। अगर दूसरे देश से कोई संक्रमित रोगी हमारे देश में पहुंचता है तो हवाई अड्डे के पास उसे तब तक क्वारंटाइन कर दिया जाता है जब तक वह संक्रमण मुक्त न हो जाये। आजकल सभी बड़े अस्पतालों में एक क्वारंटाइन वार्ड होता है जिसमे केवल गंभीर और लाइलाज संक्रमण वाले रोगियों को रखा जाता है। ताकि समाज में संक्रमण फैलने से रोका जा सके। निष्क्रियपुरी भी संक्रामक रोगियों, और मृतकों को क्वारंटाइन करने का स्थान था।  दुर्भाग्य से उसमें मृत लोगों के शव भी रखे जा रहे थे, हालांकि उन शवों को सड़ने से रोकने के लिए वे लोग शवों पर तरह-तरह के लेप कर रहे थे। बहुत जल्दी ही निष्क्रियपुरी के व्यवस्थापकों को मृतक और मृत का अन्तर समझ आ गया था। फिर उन्होंने मृतों का जल्दी निपटारा करना शुरू कर दिया। इसके लिए वे मर गए शरीरों को निष्क्रियपुरी में पहाड़ से नीचे गिरा देते, जमीन में दबा देते या आग में जला देते थे। मैं यह सब आगे बताने वाला हूँ।“

दीपक और रुचि के बोलने से आनंद हजारों वर्षों की दुनिया से आज की दुनिया में लौट आया। वापस लौटने के क्रम में उसे शब्दों से खेलने वाली जुड़वा बहनों जीभा और भाषी का शब्द-खेल सुनाई दे रहा था। जीभा और भाषी के इसी खेल को मनुष्यों की आने वाली पीढ़ियाँ सदियों तक दोहराने वाली थीं। एक पीढ़ी से दूसरी और फिर अगली पीढ़ी तक जाते हुए शब्दों में हो रहे क्रमिक परिवर्तन / म्यूटेशन से नए-नए शब्दों की रचना होने वाली थी...  

  • सुमेरु > हुमेरु > जुमेरु > जउमेरु > उजमेरु > अजमेर

  • पशुचर > पशुकर > पुशकर > पुष्कर
  • धर्मराज > धमराज > जमराज > यमराज
  • धर्मपुरी > धमपुरी > जमपुर > यमपुरी
  • दिशापाल > दिजापाल > दिगापाल > दिग्पाल > दिक्पाल
  • निष्क्रियपुरी > निह्क्रियपुरी > निक्रियपुरी > नक्रियपुरी > नरकियपुरी > नरकपुरी
  • निष्क्रिय = क्रियान्त > क्रिवान्त > क्विरांत > क्विरांट > क्वारंटाइन
  • ज्वलपुरी > ह्वलपुरी > ह्यलपुरी > हैलपुरी > हैल hell
  • ज्वालापुर > ज्वानापुर > ज्यानापुल > ज्यानामुल > ज्हानामुन > जहमन > जहन्नम
  • श्रीद्रु > श्रीतरु > तरुश्री > तलुशी > तुलशी > तुलसी
  • श्रीद्रु > हरिद्रु > हरिद्रा > हलिदरा > हलिदया > हल्दी
  • आर्तनाद > आर्त > आरती

(क्रमशः)

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