यम कथा-1
लेखक -- राजेन्द्र गुप्ता
देवताओं और दानवों की पौराणिक कथाओं
को मानव सभ्यता के प्रारंभिक चरण की कहानियों के रूप में
देखा जा सकता है। सभ्यता के आरंभ से लेकर आज तक, हमारे पूर्वजों की सैकड़ों पीढ़ियों ने मुँह-बोले
शब्दों के माध्यम से ही अपने बच्चों को इन घटनाओं के विषय में बार-बार बताया
होगा। किन्तु इस बीच उच्चारण में बदलाव के चलते, कहानियों के मूल शब्दों में उसी तरह
म्यूटेशन या परिवर्तन
होते गए जैसे की हमारे आनुवंशिक जीन के डीएनए में होते रहते हैं। शब्दों में हुए
इन परिवर्तनों के कारण, अधिकतर
कहानियों का मूल अर्थ, प्राचीन
काल में आँखों-देखी घटनाओं के वर्णन से पूरी तरह से बदल गया होगा। मूल घटनाओं की खोज में, जीव-वैज्ञानिक आनंद
प्राचीन काल की
स्वप्निल दुनिया में, पुरखों के साथ एक और यात्रा पर निकला।
और इस बार वह मानव सभ्यता
के पहले पुर में जा पहुंचा है। जंगलों में घूमन्तू शिकारी जीवन और कंद-मूल-फल के संग्रह
का जीवन छोड़ कर मानव ने खेती शुरू की है और विश्व का पहला पुर बसाया है। लेकिन इस सभ्य
समाज पर एक संकट गहरा गया है। लाखों वर्षों के वन्य जीवन में इन लोगों ने कभी किसी
बूढ़े पुरुष या बूढ़ी स्त्री को नहीं देखा था। लेकिन अब, पुर में लोग बूढ़े हो रहे हैं।
उन्हें तरह-तरह के रोग हो रहे हैं। अनेक घरों में अशक्त मृतप्रायः रोगी पड़े हुए
हैं, अनेक घरों में मृत शरीर भी पड़े हैं। परिजन निर्जीव शरीरों से चिपककर बिलखते
रहते हैं। शवों से दुर्गंध आती है। समाज
में संक्रामक रोग फैल रहे हैं। कोई नहीं
जानता कि मृतप्रायः और मृत शरीरों का क्या करें।
आनंद अपने मित्र
दीपक को पूरा विवरण बता रहा है। आप भी सुनिये ...
आनंद की आँखें बंद
हैं। वह बोल रहा है,
“लगभग 15,000 वर्ष पहले की बात है। हिमयुग समाप्त होने पर धरती के पर्यावरण में भारी परिवर्तन आया है। पूरे भूमंडल पर गर्मी बढ़ रही है। आजकल की भाषा में इसे ग्लोबल वार्मिंग (global warming) या भूमंडलीय ऊष्मीकरण कहते हैं। बढ़ते तापमान से यूरोप के अधिकांश भाग की धरती पर जमी हुई बर्फ पिघल गयी है। भारत में हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली नदियों का जलस्तर बढ़ गया है। लेकिन हिमालय के दक्षिण में, पूरे मध्य-भारत और दक्षिण भारत के पहाड़ों और वनों में सभी नदियाँ और झरने सूख रहे हैं। इन्हीं पहाड़ी वनों में, हमारे घुमंतू, आहार-संग्राहक और शिकारी पुरखों की सैकड़ों पीढ़ियों ने जीवन बिताया है। वनों में सब झरने और नदियों के सूख जाने के बाद पुरखों को उत्तर भारत के मैदानों में नदियों और तालाबों के किनारे स्थायी रूप से बसना पड़ा है। मैं राजस्थान में अजमेर-पुष्कर क्षेत्र में विश्व के पहले पुर में पुरखों के साथ हूँ। यह सभ्यता का आरंभ है। सभ्य जीवन पुरखों की पसंद नहीं अपितु एक पीड़ादायक विवशता है। वन्य जीवन से सभ्य जीवन अपनाने के संक्रमण काल में उनकी जीवन शैली में क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हैं। वन में रहते हुए, प्रतिपल जंगली जानवरों से जूझते हुए, अपनी जान बचाना और साथ में गर्भवती स्त्रियों और शिशुओं की जान बचाना ही प्राथमिकता थी। मरे हुए बच्चे को छाती से चिपका कर घूमने की वानरी प्रवृत्ति भी वे छोड़ चुके थे। वे समझ चुके थे कि मरे बच्चे को छाती से चिपकाये रखने से रखने का माँ के जीवन को रोगों का खतरा था। जंगल में दौड़ कर अपने आपको पशु से बचाने के समय भी मरे बच्चे को लादे रहने से दौड़ने की गति धीमी हो जाती थी। अतः मरे हुए बच्चों को पशु से खाने से बचाने के लिए जमीन में दबाने की प्रथा शुरू हो चुकी थी। उस निरंतर गतिशील समाज में जब कोई वयस्क व्यक्ति भी रोग से अशक्त हो जाता या घायल हो कर पंगु हो जाता था तो उसे पीछे ही छोड़ना पड़ता था। जब शिकार से लौट कर आते थे, तब तक अशक्त रोगियों और अपंगों को हिंस्र पशु खा चुके होते थे। कभी-कभी उनके कंकाल ही मिलते थे। मानव के इस वनवासी जीवन को केवल तीन शब्दों में परिभाषित किया जा सकता था, “सबल ही बचेगा”। यही कारण है कि लाखों वर्षों के वन्य जीवन में युवा ही शिकार से वापस लौटे थे। सच तो यह है कि हमारे इन पुरखों ने कभी किसी बूढ़े पुरुष या बूढ़ी स्त्री को नहीं देखा था।
(क्रमशः)
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