Thursday, June 14, 2012

महर्षि वाल्मीकि-1: शरीर पर दीमक और राम नाम का उल्टा जाप

 

श्री राम के समकालीन और जीवनीकार, महर्षि रामकवि 7000 वर्षों के बाद भारत लौटे। भारत पहुँचते ही उन्हें यह जान कर धक्का लगा कि भारत के लोग उनकी सम्मानसूचक उपाधि और असली नाम को भूल चुके हैं; लोग अब उन्हें ‘वाल्मीकि’ अर्थात ‘दीमक की बाँबी’ कहते हैं; अब उनका जन्म-दिवस केवल सफाईकर्मी या पूर्व-सफाईकर्मियों के वंशज ही मनाते हैं। उन्हें यह जान कर भी पीड़ा पहुँचि कि इस देश के लोग अब यह समझते हैं कि गुरुकुल में कठिन परिश्रम से विद्या अध्ययन के बजाय, राम-नाम को उल्टा या सीधा जपने से ज्ञान मिल सकता है। रामकवि की भारत में पुनर्यात्रा पर राजेंद्र गुप्ता की खास रिपोर्ट...  


क्या आप जानते हैं कि आज की तरह, रामायण-काल में भी जीमेल (Gmail) से ही पत्राचार से होता था? राम जी और लक्ष्मण जी-टॉक (g-talk) पर बात करते थे। सीता जी की रक्षा के लिए रावण से लड़ कर अपनी जान गवाँ देने वाला गीध जटायु एक गूगल-ब्लॉगर भी था! हनुमान जी, लंका की भौगोलिक स्थिति देखने के लिए, गूगल मैप देखते थे! चौंकिए नहीं। यह सब नवीनतम रामायण में दिया गया है। इस रामायण को  पिछले महीने, मई 2012, में गूगल क्रोमे ने बनवाया है। 

निश्चय ही यह नई गूगल रामायण, श्री राम से हमारे अटूट रिश्ते का प्रमाण है क्योंकि हर काल में, हम प्राचीन रामकथा में कुछ समयानुकूल और देशानुकूल तत्व जोड़ते चले जाते हैं जिससे कथा की प्रासंगिकता बनी रहती है। परंतु प्राचीन रामकथा में नए तत्व जोड़ते रहने की हमारी परंपरा से यह कठिनाई पैदा हो गई है कि कथा में भारी विविधता आ गयी है जिसके चलते हम यह भूल चुके हैं कि मूल रामकथा क्या थी। मूल रामकथा की खोज हमें वाल्मीकी रामायण तक ले जाती है क्योंकि निर्विवाद रूप से, वाल्मीकि रामायण ही सभी प्रचलित रामायणों में सबसे पुरानी है। माना जाता है कि वाल्मीकि जी श्री राम के समकालीन थे और सीता जी ने अपना दूसरा वनवास वाल्मीकि जी के आश्रम में ही बिताया था और वहीं उन्होंने अपने पुत्रों को जन्म दिया। 

भारतीय लोक-चेतना में भले ही श्रीराम की ऐतिहासिकता पर कोई संशय न हो किन्तु सभी विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में इतिहास के विद्यार्थियों को यही पढ़ाया जाता रहा है कि रामकथा को ऐतिहासिक घटना मानने का कोई कारण नहीं है। दिल्ली विश्वविद्यालय में ओहायो विश्वविद्यालय (अमेरिका) की प्रो॰ पाउला रिचमैन द्वारा संपादित पुस्तक अनेक रामायण और उसमें विशेषतः शिकागो विश्वविद्यालय के प्रो॰ ए. के. रामानुजन का लेख तीन सौ रामायण पढ़ाया जाता है। पुस्तक में बताया गया है कि दुनिया में 300 से अधिक रामायण हैं; सबकी कहानी इतनी अलग है, कि किसी भी रामकथा को सच मानने की आवश्यकता नहीं है; वाल्मीकि रामायण को भी विशेष दर्जा नहीं दिया जा सकता क्योंकि वह भी अनेक रामायणों में से एक रामायण है। किसी कथा में राम और सीता भाई बहन हैं, जो शादी कर लेते हैं तो किसी में सीता रावण की पुत्री हैं। इस बात पर कुछ समय काफी विवाद चला। मामला न्यायालय में भी गया। इसके बाद, दिल्ली विश्वविद्यालय ने इतिहास में बीए के पाठ्यक्रम से रामानुजन के लेख को हटा लिया, हालांकि, इतिहास में एम.ए. के विद्यार्थियों को अब भी इसे पढ़ाया जा रहा है। रामानुजन के लेख को बी.ए. पाठ्यक्रम से हटाने का वामपंथी अध्यापकों ने व्यापक विरोध किया। 

एक रात, मुझे ई-मेल से अगली सुबह दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्ट्स फ़ैकल्टी के सभागार में होने वाली एक विरोध-गोष्ठी का निमंत्रण मिला। सभी वक्ता देश के नामी वामपंथी विचारक थे। मैंने गोष्ठी में जाने के मन बनाया। सोने से पहले मैं सोच रहा था कि वामपंथी विचारक वाल्मीकि रामायण को महत्वहीन बनाने के लिए मिशनरी वृत्ति से जुटे हुए हैं। रामायण के प्रति वामपंथियों की हठधर्मी कुछ वैसी बात है जैसा कि घर की सफाई में कूड़े करकट के साथ काम की वस्तु को फेंक देना, या फिर जिसे एक अँग्रेज़ी कहावत में कहते हैं: 'to throw the child with the bath water' यानी बच्चे को नहलाने के बाद बाथ-टब के पानी के साथ बच्चे को भी बाहर फेंक देना! 

इसके विपरीत, मेरी निजी सोच यह है कि राम की ऐतिहासिकता पर खुले दिमाग से शोध की आवश्यकता है और उसके लिए वाल्मीकि रामायण एक बढ़िया प्राथमिक स्रोत हो सकती है। लेकिन यह बात भी पक्की है कि रामकथा की ऐतिहासिकता की खोज के लिए पूरी वाल्मीकि रामायण को तर्क की कसौटी पर कसना ही होगा। मैं नहीं जानता कि रामानुजन और पाउला रिचमैन का विरोध करने वाले भक्त-जन रामायण के तर्कपूर्ण विश्लेषण के लिए तैयार होंगे या नहीं। ख़ैर, अगले दिन होने वाली गोष्ठी के आलोक में रामकथा पर वामपंथी-दक्षिणपंथी हठधर्मिताओं पर सोचते-सोचते मुझे नींद आ गई। नींद में मैंने पाया कि ... 
 ******
मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के सम्मेलन केंद्र के सामने से जा रहा हूँ। मैं एक सम्मेलन का बैनर देख कर रुक गया: '300 विभिन्न रामायणों पर राष्ट्रीय सम्मेलन और प्रदर्शनी'। उसी समय वहाँ वाइस-चांसलर महोदय की कार रुकी और वे अन्य अधिकारियों के साथ सम्मेलन केंद्र में अंदर गए। वाइस-चांसलर जी के अंदर जाते ही एक साधु वहाँ आए और मुझसे संस्कृत में पूछने लगे, "कुलपति महोदय कुत्र अस्ति?" (कुलपति महोदय कहाँ हैं?)। मैं समझ गया कि वे वाइस-चांसलर साहब को पूछ रहे हैं । मैंने उन्हें सम्मेलन केंद्र में अंदर जाने का रास्ता दिखाया।

मैं सोच रहा था कि भारत में सभी विद्यार्थी स्कूल में संस्कृत पढ़ते हैं; संस्कृत के स्कूली ज्ञान के कारण ही आज मैं इस साधु की संस्कृत में कही बात समझ सका। ऐसा बस भारत में ही हो सकता है कि अगर वाल्मीकि जी भी 7000 वर्ष बाद लौट आयें तो उन्हें उनकी भाषा में बात करने वाले कुछ लोग मिल जायेंगे। लेकिन अगर हिब्रू- बाइबिल, या ईसाई बाइबिल के रचनाकारों में से कोई आज की दुनिया में लौट आए, तो कोई उनकी पुरानी भाषा में उनसे बात नहीं कर पाएगा। और तो और, अगर शेक्सपियर, आज लंदन आ पहुँचे तो कोई उनकी 400 वर्ष पुरानी अँग्रेज़ी भी नहीं समझ पाएगा? वाल्मीकि जी की प्राचीन वेषभूषा भी कोई अड़चन नहीं होगी क्योंकि 7000 वर्ष बाद भी, आज के भारत में अनेक साधु-संत उसी पुराने फैशन के कपड़े पहनते हैं।

मैं जिज्ञासा-वश प्रदर्शनी देखने सम्मेलन केंद्र की लॉबी में चला गया। प्रदर्शनी में प्रो॰ पाउला रिचमैन और डा॰ रामानुजन के लेखों पर आधारित नाना कथाएँ दिखाई गईं थी। सभी दिल्ली विश्वविद्यालय के एम.ए. (इतिहास) पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं: किसी कथा में राम और सीता भाई-बहन हैं। किसी में सीता रावण की पुत्री हैं। एक बोर्ड पर रामानुजन के लेख के हवाले से दिखाया गया था कि रावण गर्भवती गर्भवान था; उसे छींक आई; छींक के साथ ही, नाक के रास्ते, रावण के गर्भ से सीता पैदा हो गईं! पूरी प्रदर्शनी में वाल्मीकि, तुलसीदास, कंब, कृतिवास आदि प्रचलित पारंपरिक भारतीय रामायण नहीं थी। पूरा ज़ोर कुछ अज्ञात-अप्रचलित कहानियों पर था। प्रदर्शनी देखने के बाद मैं सभागार में जा कर बैठ गया। 

मंच से वाइस-चांसलर जी का उदघाटन भाषण हो रहा था:      
 
"मित्रों: सबसे पहली रामायण महर्षि वाल्मीकि ने लिखी थी। वाल्मीकि जी आदिकवि थे। उनकी कविता करुणा और पीड़ा से उपजी थी। जब एक शिकारी ने प्रणय-क्रीड़ा करते हुए एक चकोर-पक्षी की जोड़ी पर तीर चलाया, तो वाल्मीकि जी का मन चीत्कार कर उठा: 

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्।।
(हे निषाद, तुम कभी शांति प्राप्त न कर सको, क्योंकि तुमने चकोर पक्षियों के जोड़े में से कामभावना से ग्रस्त एक का वध कर डाला है।)  

मैंने देखा कि जिस साधु ने कुछ देर पहले मुझसे कुलपति जी के बारे में पूछा था वह अपने स्थान से उठे और उन्होने वाइस-चांसलर जी को अधिकार भरे स्वर में टोका: 

“कुलपति महोदय आप ऐसा नहीं कह सकते। व्याध द्वारा क्रोञ्च के शिकार की इस घटना का साक्षी मैं था। यह कविता मेरी है। आप मुझे वाल्मीकि कह कर अपमानित कर रहे हैं।”

सभा में खुसुर-पुसुर शुरू हो गयी। विश्वविद्यालय में पुराने लोग जानते हैं कि कैंपस में अभी तक कई प्रोफेसरों का दिमाग ख़राब हो चुका था। प्रोफेसरों और शोधकर्ताओं को लगा कि एक और प्रोफेसर पागल हो गया है और स्वयं को रामायण का रचयिता समझने लगा है। आयोजन समिति के कई सदस्य साधु की ओर बढ़े। वे उन्हें पकड़ कर कक्ष से बाहर करना चाहते थे। किन्तु साधु की वाणी और व्यक्तित्व में कुछ था जो उन्हें साधु को हाथ लगाने से रोक रहा था। सभापति को भी उत्सुकता थी कि कौन प्रोफेसर पागल हो कर स्वयं को वाल्मीकि रामायण का रचयिता मान कर साधु वेश में चला आया है।

सभापति ने पूछा: आप कौन हैं? अपना परिचय दीजिये।

साधु ने कहा: आश्चर्य! आज भारत में मेरा परिचय मांगा जा रहा है? मुझे विश्वास नहीं हो रहा कि लोग मुझे भूल सकते हैं! मैं सोचता था कि भारत कभी राम को नहीं भूलेगा। और राम के साथ ही रामायण रचयिता रामकवि को भी नहीं। मैं ही रामायण का रचयिता हूँ। मैं रामकवि के नाम से प्रख्यात हूँ।

सभापति कुछ मुस्कराये। यह पक्का हो गया था कि साधु कोई पागल था। एक पागल से निबटने के लिए युक्ति की आवश्यकता थी। सभापति ने कहा। जी हाँ, आप सत्य कह रहे हैं। आपने ही रामायण लिखी थी। हमें क्षमा करिये, गुरु जी। लव और कुश रामायण सुनाने के लिए बाहर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। अरे भाई, गुरु जी को लव-कुश के पास ले जाइए।
(अब तक प्रोक्टर के इशारे पर सुरक्षाकर्मी साधु को घेर चुके थे) 

साधु ने कहा: कुलपति महोदय, मैं भी एक कुलपति था। किन्तु मेरे गुरुकुल में कभी किसी आगंतुक कुलपति को सुरक्षाकर्मियों द्वारा इस तरह घेर कर अपमानित नहीं किया गया। लव और कुश तो हज़ारों वर्ष पहले मेरे साथ थे। लव और कुश बाहर खड़े हैं ऐसा कह कर आप मुझे पागल बना रहे हैं। सभापति जी, मैं अकेला ही फिर से भारत यात्रा के लिए आया हूँ।

तभी एक अजीब बात हुई। अपने गैर-परंपरागत व्यवहार के लिए प्रसिद्ध, वाइस-चांसलर महोदय ने साधु को मंच पर बुला लिया और कहा,  

आपका स्वागत है कुलपति महोदय! आप मंच पर मेरे साथ बैठिए। क्षमा कीजिये, हम रामायण के आदि कवि को वाल्मीकि नाम से ही जानते हैं। इसमें अनादर की कोई बात नहीं हैं। आप प्रातः स्मरणीय हैं। भारत में बचपन से ही हर बच्चे को आपकी कठिन तपस्या के किस्से सुनाये जाते है। कहा जाता है कि तपस्या करते-करते आपके शरीर पर दीमक की बांबिया बन गईं थीं, संस्कृत में दीमक की बांबी को वल्मीक कहते हैं, अतः वल्मीक से ढका होने के कारण लोग आपको वाल्मीकी कहने लगे। यह शब्द तो आपके कठिन तप के सम्मान में है। बताइये कुलपति, क्या यह असत्य है? क्या आपको पहले कभी किसी ने वाल्मीकि नाम से नहीं बुलाया? अगर आप को बुरा लगा तो मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। कृपया बताएं कि आपको किस नाम से बुलाया जाये।


साधु का रोष शांत हुआ। वे मंच पर पहुंचे और उन्होने बोलना शुरू किया:  

'महामति कुलपति जी, आपका बहुत धन्यवाद और आभार। यह विचित्र संयोग है कि मैं वर्तमान काल के भ्रमण पर निकाला, और वर्तमान काल के किसी कुलपति को खोजता हुआ, इस रामायण सम्मेलन तक आ पहुंचा। मैंने यहाँ रामायण पर प्रदर्शनी भी देखी। प्रदर्शनी देख कर मुझे परम संतोष है कि मेरी लिखी हुई राम कथा अमर हो गयी है। महोदय, आपने मुझे आदि-कवि कह कर सम्मान दिया, किन्तु मैं आदि कवि नहीं हूँ। जब मैंने रामायण लिखी तब तक तीन वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, और सामवेद रचे जा चुके थे। (नोट: वाल्मिकी रामायण में इन तीन वेदों के नाम पाये जाते हैं) तीन वेद भी तो काव्य थे। उनके रचनाकार भी तो कवि थे। तो फिर मैं आदि कवि कैसे हुआ? वेदों की रचना में सैकड़ों वर्ष निकाल गए थे। इस बीच वैदिक संस्कृत अत्यंत दुरूह हो चुकी थी। इस कठिन भाषा के शब्दों को समझने के लिए विद्वानों को भी शब्द-कोशों और व्युत्पत्ति कोशों की आवश्यकता होती थी। जिस वैदिक संस्कृत में कभी जन-सामान्य वार्ता करते थे, वह वैदिक संस्कृत, राम युग में साहित्यिक भाषा बन चुकी थी। ऐसे समय में मैंने सरल शब्दों में सामान्य-जन की बोलचाल वाली संस्कृत में काव्य रचना की। अतः, मैं संस्कृत का आदि कवि नहीं, श्री राम के समय में अयोध्या और उसके आस पास बोली जाने वाली संस्कृत की एक लोक-बोली का आदि कवि अवश्य था। कुलपति महोदय, भाषा बहता नीर है। निरंतर बदलती हुई। हर पल पुराने पानी का स्थान नया पानी लेता रहता है। 

वेद की भाषा की तरह ही, निश्चय ही मेरे द्वारा लिखी हुई रामायण की भाषा भी कालांतर में दुरूह या समझ से बाहर हो गयी होगी। किन्तु मुझे प्रसन्नता है कि अनेक विद्वानों ने रामायण को अपने-अपने युग में अपनी-अपनी भाषा में सरल करके पुनः पुनः लिखा। यह आवश्यक था। किन्तु देखता हूँ कि मेरा लेखन कुछ अधिक ही दुरूह हो गया होगा। बाद के लेखक और कवि मेरे लिखे हुए को समझ नहीं पाये होंगे; तभी तो मैंने देखा कि प्रदर्शनी में दिखाई गयी अनेक रामायण, जो मेरे बाद लिखी गयी हैं, सच्चाई से बहुत दूर तो हैं ही, उनमें कथा को बचकाने ढंग तोड़ा मरोड़ा गया है। लगता है कि उच्चारण या वर्तनी की अशुद्धियों के कारण भी बहुत अनर्थ हो गया है। रामायण प्रेमी विद्वत जनों और विद्यार्थियों, मैं आज यहाँ पूरे दिन उपलब्ध हूँ। आप मुझ से कुछ भी पूछ सकते हैं।”

वाइस-चांसलर जी ने कहा: 'महर्षि, पहला प्रश्न मेरा है, पुनः पूछ रहा हूँ। बताइये कुलपति, क्या आपको पहले कभी किसी ने वाल्मीकि नाम से नहीं बुलाया? आपके साथ यह दीमक की बाँबी वाली कहानी का क्या रहस्य है?'

प्रश्न सुन कर रामकवि गंभीर हो गए। उन्होंने कहना शुरू किया:

मान्यवर, दीमक वाली कहानी केवल एक हास्यास्पद कल्पना है। पहली बात हमें अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि दीमक कभी भी किसी जीवित प्राणी या वृक्ष पर घर नहीं बनाती। हो सकता है कि आपने कुछ जीवित वृक्षों पर दीमक देखी होगी। पुनः ध्यान से देखिये। प्रत्येक वृक्ष के तने का बाहरी भाग मृत लकड़ी का बना होता है, और आंतरिक भाग जीवित होता है। दीमक कभी वृक्ष के जीवित आंतरिक भाग पर घर नहीं बनाती। कभी किसी जीवित मनुष्य पर भी दीमक घर नहीं बना सकती। अगर आपने यह विश्वास कर लिया है कि मेरा शरीर दीमक से ढका था, तो आपको यह भी मान लेना चाहिए कि मैं मर चुका था, और मेरा शरीर सड़-गल चुका था।   

सभा में सन्नाटा छा गया। सुरक्षा कर्मचारी, चपरासी और सफाई कर्मचारी भी रामकवि का भाषण सुनने के लिए अंदर आ गए। रामकवि कहते जा रहे थे:   

हे महामति, मैं कुलपति था। मेरे समय में कुलपति उस आचार्य को कहते थे जिसके गुरुकुल में कम से कम 10,000 शिष्यों की शिक्षा, आवास, भोजन, वस्त्र और अन्य आवश्यकताओं का प्रबंध हो। सुनता हूँ कि आपके विश्वविद्यालय में तो इससे बहुत ही कम विद्यार्थियों के आवास का प्रबंध है। शायद सभी विद्यार्थियों के पाँच प्रतिशत के लिए भी नहीं। आवास के लिए आप विद्यार्थियों से धन भी लेते हैं। आपके यहाँ विद्यार्थियों के लिए वस्त्र इत्यादि का तो कोई प्रबंध ही नहीं है।  

वाइस-चांसलर ने पल भर के लिए सिर झुकाया और बोले: 

महर्षि मैं जानना चाहता था कि वाल्मीकि शब्द कहाँ से आया?’

मैं वही बता रहा था, आचार्यवर! इसके पीछे एक कहानी है। आवासी विद्यालय का संचालन बहुत कठिन होता है। ऊर्जा से भरे आवासी युवा छात्रों को खाली समय में शरारतें सूझती हैं। अनेक बार कुलपति को शरारती छात्रों को अनुशासित करने के लिए कुछ अप्रिय कदम उठाने पड़ सकते हैं। कुलपति से नाराज़ हो कर आवासीय शिक्षालयों के विद्यार्थी प्रायः अपने कुलपति को कोई शरारती उपनाम देते हैं। आप बार-बार पूछ रहे हैं, अतः मुझे संकोच से बताना पड़ रहा है कि मेरी अनुपस्थिति में मेरे कुछ शिष्य मुझे वाल्मीकि यानी दीमक कहते थे। कुलपति महोदय और अन्य आचार्य-गण, आप के शिष्यों ने भी आपके रोचक शरारती उपनाम रखे होंगे।'

सभा में खुसुर-पुसुर हुई, छात्रों के समूह से दबी हुई हंसी की आवाज़ें आयीं।
महर्षि कहते जा रहे थे: 

'मेरे समय से पहले तक तीन वेदों की रचना हो चुकी थी। वेद लिखने के लिए कोई अच्छी लिपि नहीं थी। उस समय पुस्तकें नहीं लिखी जाती थीं। अतः सभी विद्यार्थी वेदों को सुन कर तथा बोल कर याद किया करते थे। वेदों को सुनने और बोलने के माध्यम से बचाये रखने में भारी श्रम और ऊर्जा खर्च होती थी। वेदों को सुन कर याद करने के कारण उन्हें श्रुति कहने लगे थे। जब मैंने रामायण की रचना की तब मैंने भी रामायण को शिष्यों से कंठस्थ करवाया। 

किन्तु अब तक एक अच्छी चित्र-लिपि का आविष्कार हो चुका था। व्यापारी अपने सामान पर पहचान के लिए मोहर लगा रहे थे जिस पर किसी पशु का चित्र और चित्रलिपि में पशु का नाम लिखा होता था। मुहर पकी हुई मिट्टी, पत्थर या तांबे की बनी होती थी। मैंने पहली बार इस नई लिपि से  रामायण महाकाव्य लिखने का प्रयोग किया। मैं पत्तों पर, वृक्षों की छाल पर या पशुओं खाल पर काव्य लिखता था। लिखना सरल था, परंतु लिखी हुई कथा को बचाना बड़ी समस्या थी। 

नदियों और सरोवरों वाले क्षेत्र में बने मेरे आश्रम में काफी नमी थी। आश्रम में  दीमक का बहुत प्रकोप था। किन्तु उस समय मैं दीमक को बहुल कृमि कहता था क्योंकि यह छोटा सा सामाजिक कीड़ा सदा ही बहुल संख्या में चलता है, कभी अकेला नहीं।


मेरी लिखी हुई पुस्तकों को यह बहुल कृमि यानी दीमक खा जाता था। मैं हर समय शिष्यों को सफाई रखने के लिए कहता था। कहीं भी दीमक दिखती थी तो मैं अधीर हो कर 'बहुल कृमि' 'बहुल कृमि' चिल्लाता था। मैं शिष्यों को आदेश देता कि 'बहुलकृमि' को तुरंत हटा कर उस क्षेत्र की सफाई कर दें। जैसे-जैसे रामायण के पृष्ठ बढ़ते गए, शिष्य मेरे मुख से अधिक बार बहुलकृमि-बहुलकृमि सुनते गए।'  

'आप लोग आंखे बंद करके मेरे गुरुकुल के उस समय के वातावरण का ध्यान करिये। मेरे शिष्य दीमक हटाने के मेरे आदेशों से परेशान हैं। 

शिष्य दीमक साफ करते हुए बड़बड़ा रहे हैं:

'गुरु  जी का आदेश हैं, बहुल कृमि साफ करो

बहुल कृमि साफ करो 
बयुल किमी साफ़ करो 
बयलकिमी साफ़ करो
बालकिमी साफ़ करो
बालमीकी साफ़ करो
वाल्मीकि साफ़ करो  
इस तरह शिष्यों ने बहुलकृमि को वाल्मीकि कहना शुरू कर दिया। वे जब भी मुझे देखते आपस मे खुसुर-पुसुर करते: वाल्मीकि, वाल्मीकि। उन्होने मेरा उपनाम ही वाल्मीकि रख दिया था। 
 
सर्दियों की एक रात में मैं आश्रम में कम्बल ओढ़ कर बैठा हूँ। मैं सुन रहा हूँ कि कुछ शिष्य वहाँ से मस्ती करते हुए जा रहे हैं। ध्यान लगा कर सुनिए कि वे क्या कह रहे हैं:
    
एक: वह देखो आचार्य बैठे हैं।   
दूसरा: आचार्य का शरीर कम्बल से पूरी तरह ढका है।
तीसरा: आचार्य का शरीर पूरी तरह ढका है, कमबल से या बलकम से।
चौथा: आचार्य का शरीर पूरी तरह ढका है, बलकम से या बलमक से।
पांचवा: आचार्य का शरीर पूरी तरह ढका है, बलमक से या बल्मीक से।
सभी मिल कर: आचार्य का शरीर पूरी तरह बल्मीक से ढका है।   
अरे हटाओ वल्मीक। हटाओ वाल्मीकि। हटाओ आचार्य के शरीर से वल्मीक हटाओ ! हा हा वाल्मीकि हटाओ !
सभी मिल कर खिलखिलाकर हँसे: हाँ हाँ, वाल्मीकि हटाओ! 

मुझे क्रोध आ रहा था किन्तु साथ ही प्रसन्न भी था कि मेरे शिष्य शब्दों से खेल में निपुणता प्राप्त कर रहे थे। खेल-खेल में उन्होने कम्बल शब्द को  वल्मक में बदल दिया था। इन्हें ध्वनि की समझ थी। शरारती प्रवृत्ति पर संयम रखने से यह शिष्य आने वाले समय में भाषा विज्ञान के आचार्य का प्रशिक्षण ले सकते थे। कौन थे ये होनहार? मैंने उन्हें देखने के लिए शरीर से कंबल हटाया, किन्तु शिष्य मुझ से डर कर अंधेरे में गायब हो गए। 

'मित्रों, अभी आँखें बंद रखिए। एक और दृश्य देखने का प्रयत्न कीजिये। 

'मुझे रामकवि की उपाधि से सम्मानित किया जाना है। मुझे सम्मान प्राप्त करने के लिए अयोध्या जाना है। गलती से शिष्य समझ रहे थे कि मैं आश्रम से जा चुका हूँ। मैं सुन रहा हूँ कि मेरी अनुपस्थिति में शरारती छात्र मेरे उपाधिनाम से उल्टा-सीधा खेल रहे हैं:
रामकवि
रामकवि रामकवि 
विरामक वरामकी 
वलामकी वलामकी
वल्मीकि वल्मीकि
वाल्मीकि वाल्मीकि
हा हा हा ! वाल्मीकि !

मैं निरंतर ब्रह्म ज्ञान की खोज करता रहा। और मेरे शिष्य रामायण की प्रतियों को दीमक से बचाने की मेरी आज्ञा के पालन से परेशान होते रहे। दीमक हटाते हुए शरारती शिष्य मेरे नाम का उल्टा जाप करते रहे। और जगत में इस उल्टे नाम को प्रसिद्ध करते रहे।  

रामकवि चुप हो गये। सभाभवन  में चुप्पी थी।   

वाइस चांसलर साहब ने चुप्पी तोड़ी:
ओह। हमें खेद है रामकवि। आचार्यों के शरारती उपनाम बनाने की परंपरा अभी कायम है, कुलपति। अपने छात्र-जीवन में, मैंने भी अपने आचार्यों को शरारती उपनाम दिये थे। मेरे शिष्यों ने भी मुझे विचित्र उपनाम दिये हैं। लेकिन आज आपसे एक अद्भुत बात सुनी। हमने तो बचपन से यही सुना था कि 'उल्टा नाम जपत जग जाना। वाल्मीकि भए ब्रह्म सुजाना।' आप राम-राम के स्थान पर उसका उल्टा मरा-मरा जपते थे। और ब्रहमज्ञानी बन गए। अब जाना कि उल्टे नाम जाप का क्या अर्थ था। आपने भगवान राम के नाम का उल्टा मरा-मरा जाप नहीं किया, बल्कि आपके नाम का उल्टा और तोतला जाप करके शिष्यों ने रामकवि शब्द का वाल्मीकि बना दिया!

रामकवि का मुख आश्चर्य से खुल गया। 
'क्या कह रहे है आप? राम-राम का जाप! मरा-मरा का जाप! मैंने तो ऐसा कभी नहीं सुना!'  
   
वाइस चांसलर जी महर्षि रामकवि को पूरी कहानी सुनना चाहते थे जिसके अनुसार कहा जाता है कि वाल्मीकि जी पूर्वकाल में एक अनपढ़ लुटेरा थे। नारद मुनि ने उन्हें राम-राम जपने की प्रेरणा दी। अज्ञानता से वे राम-राम न जप कर, 'मरा-मरा' उल्टा नाम जपते रहे। मरा-मरा जाप को ही भगवान ने राम-राम जाप मान कर उन्हें सिद्धियाँ दे दीं, त्रिकालदर्शी बना दिया।

लेकिन विवेकी वाइस-चांसलर ने कहानी को सेंसर कर दिया। या यूं कहिए कि महर्षि के मुँह पर उनके लुटेरा होने की कहानी बताना उन्हें अभद्रता लगी। उन्होने केवल इतना पूछा: 

'मान्यवर हमने सुना है कि आप भगवान राम का राम-राम नाम जपने के स्थान पर उनका उल्टा नाम मरा-मरा जप कर त्रिकालदर्शी और ब्रह्मज्ञानी हो गए। निश्चय ही यह भी झूठ होगा। किन्तु कृपया हमारी जिज्ञासा शांत करने की कृपा करें।'      

कुलपति रामकवि ने कहा:

'राम-राम भूल कर मरा-मरा जपने की बात तो मेरे शरीर पर दीमक की बाँबी बनने की बात से भी अधिक हास्यास्पद है। सुनता हूँ कि आजकल आप लोग श्री राम को भगवान मानते हैं। उनके मंदिर बना कर उनकी प्रतिमा की पूजा करते है! पहली बात यह है कि श्रीराम भगवान नहीं थे। मैंने तो कभी ऐसा नहीं सुना था। न ही मैंने रामायण में ऐसा कहीं लिखा। मैंने यह अवश्य लिखा है कि सेतु-बंध से पहले कुछ नादान लोगों ने उन्हें भगवान कहने की कोशिश की परंतु श्री राम ने उन्हें ऐसा कहने से मना कर दिया था। इसी प्रकार मैंने युद्धकाण्ड में लिखा कि युद्ध में विजय के बाद कुछ लोगों ने उन्हें भगवान कहा था।

जब श्री राम एक बच्चा थे तबसे मैं उनके पिता राजा दशरथ का मित्र था। श्री राम को किसी के द्वारा पहली बार भगवान कहे जाने से कई दशक पहले ही मैं शिक्षा ग्रहण करके आचार्य के रूप में अपना गुरुकुल स्थापित कर चुका था। श्री राम के जीवन काल में उन्हें पुरुषोत्तम कहा गया, भगवान नहीं माना गया। फिर नारद मुनि या कोई और मुझे राम नाम जपने के लिए कैसे कह सकते थे? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कुलपति जी, कि अगर नाम जाप से ही विद्या मिल सकती है तो फिर आप यह फार्मूला अपने विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को क्यों नहीं देते? क्यों सभी आचार्य स्वयं भी कड़े परिश्रम से विद्या अर्जित करते हैं और विद्यार्थियों से कड़ा परिश्रम करवाते हैं? मेरे गुरुकुल में भी विद्या, दक्षता, कौशल प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत करनी होती थी। मुझे नहीं पता कि विद्या प्राप्त करने के लिए नाम जपने जैसा आसान रास्ता भी हो सकता है!"  
(.... जारी)

32 comments:

  1. आपकी हर पोस्ट सदैव अच्छी लगती हैं परंतु अक्सर प्रतिक्रिया रह जाती है! यह यात्रा यूँ ही अनवरत चलती रहे, यही कामना है!
    लेखन में गतिशीलता बनाए रखें!
    हार्दिक धन्यवाद!
    सादर/सप्रेम
    सारिका मुकेश

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    1. सारिका जी, उत्साह-वर्धन के लिए बहुत धन्यवाद। सादर -- राजेंद्र

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  2. very informative piece of information, and I am sure it will help change the blind faith of some people on mythological scriptures, rather than analysing it logically. I am eager to read more such pieces. I share your posts to my family memebers so that an aged long blind beliefs should vanish and they should start thinking everything logically.

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    1. Thanks Navjyoti. I am very happy that you are liking it and also sharing my posts with your family members. I am keen to their feedback.

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    2. Rajinder ji....hi ...my name is subhash sehgal.I am a film makar... my contact 9820069823....email id ss@moveedreems.com & moveedreems@hotmail.com .I need to consult regarding making of ahistorical film ...kindly provide me your contact plz...

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    3. Thanks Subhash ji. I have seen some of your work and I am deeply appreciative of that. It will be a pleasure to interact and work with you on our mutual interest in history. I am mailing you my contact details.

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  3. I tried scrolling through this, cut the story short,tried to read one-two lines from whole paragraph but could n't.
    The whole plot compelled me to take time and today finally, I read the whole of it- word by word.
    It's really captivating, well structured, narrated and definitely an interesting write up.

    According to me, the best lines were- where you've mentioned that if someone comes back even after 7000 years,there are people who can still understand and answer a question in Sanskrit.

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    1. Thanks Vikas for very important feedback. I will try to write a shorter and more readable version.

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  4. रोचक कथा..कल्पना की उड़ान लाजवाब|

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  5. आज आपके ब्लाग पर आई -बहुत रुचिकर है.अब दूसरा भाग पढ़ने जा रही हूँ.
    आभार !

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    1. आदरणीय प्रतिभा जी, स्वागत और बहुत धन्यवाद।

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  6. On Facebook on 4 June 2012
    Sir this is absolutely amazing. its informative, logical and unique!!

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  7. on Facebook on June 14 at 1:56pm
    Thank you very much sir. Waiting for its next part.

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    1. on Facebook on 14 June 2012
      Pooja Jha Maity= when the next part comes up, please share.

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    2. on 14 June 2012 on Facebook:
      Sure Ashita, Have you read sir´s previous blog on Bhagvan Vishnu on bed of snakes? It was fantastic.

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    3. on FB on 14 June 2012
      Thanks Pooja for sharing it with your friends.

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  8. on Facebook on 12 July 2012
    very logical article in this illogical world,came to know from sh. umesh ji...my pranaam to you Sir.

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    1. on Facebook on 18 July 2012
      Thanks Sushil ji. I am happy that you liked it. Please also see the previous article on Vishnu Bhagwan on Sheshnag. Shall wait for your comments.

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  9. Thanks Sir,

    Very useful information Sir jee....
    I belong to a Valmiki community...........but because of some old blind rumour....I feel dishonour in high society to explain my community due to old blind rumour.....your article is message for that ...
    Thank you so much...........

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    1. Thank you so much and welcome to my blog. There is no high or low. We are all one people. You don't have to explain anything to anyone. Just keep you head high.

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  10. आपकी पोस्ट और खोज अद्भुत है इतना अच्छा ज्ञान पहली बार मिला रामायण के बारे में कृपया ऐसे ही हमारा मार्गदर्शन करते रहे हमेशा. हम आपके सदा आभारी रहेंगे.

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  11. अगर आपकी इसी तरह की जानकारी किसी किताब में है तो कृपया उसका नाम बताये और मैं कैसे प्राप्त कर सकता हूँ. सम्पर्क : abhay2004singh@gmail.com

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    1. अभय जी, ब्लॉग में आपका स्वागत है। मैं इस तरह के विचारों की एक पुस्तक लिखने का प्रयास कर रहा हूँ। जब भी पुस्तक प्रकाशित होगी मैं आपको सूचित करूंगा। विश्वास है की आपको अन्य ब्लॉग पोस्ट पोस्ट भी पसंद आएंगी, विशेषतः
      महर्षि वाल्मीकि-2: सीता जी का पिता रावण! सीता जी का भाई राम!!
      http://dnaofwords.blogspot.in/2012/08/2.html
      क्षारी-सागर में एनाकोण्डाओं की शैया पर आराम करते हुए भगवान विष्णु http://dnaofwords.blogspot.in/2012/05/blog-post.html
      क्या रावण के दस सिर और बीस हाथ थे ? http://dnaofwords.blogspot.in/2014/10/did-ravan-have-ten-heads-and-twenty.html

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  12. नमस्ते राजीव जी, दीमक की बाँबी और वाल्मीकि का रहस्य ढूँढते ढूँढते आपके इस ब्लॉग पर आ पहुँची. दूसरा भाग पढ़ूँगी कुछ देर में. मुझे भी शब्दों की पैदाइश कहाँ से हुई, इस में बहुत दिलचस्पी है.

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