Tuesday, September 13, 2022

पितरों के साथ -- यम कथा – 4

यम कथा – 4 

जब पहली बार मानव को यमपुरी ले जाया गया

लेखक – राजेन्द्र गुप्ता

अभी तक :– देवताओं और दानवों की पौराणिक कथाओं को मानव सभ्यता के प्रारंभिक चरण की कहानियों के रूप में देखा जा सकता है। इन कहानियों के पीछे की मूल घटनाओं की खोज में, जीव-वैज्ञानिक आनंद प्राचीन काल की दुनिया में, पुरखों के साथ एक और यात्रा पर निकला। वह मानव सभ्यता की पहली पुरी या बस्ती ब्रह्मपुरी में जा पहुँचा। वापस आने पर आनंद अपने मित्र दीपक को यात्रा का आँखों देखा हाल सुना रहा है। विश्व सभ्यता का पहला क्वारंटाइन और शव प्रबंधन केंद्र खोलने का निश्चय किया गया है। इस निष्क्रियपुरी या नरकपुरी इसका उत्तरदायित्व धर्म अर्थात यम को दिया गया है।

पहले भाग का लिंक : यम कथा – 1

दूसरे भाग का लिंक : यम कथा – 2

तीसरे भाग का लिंक : यम कथा – 3

यम कथा - 4 :- मानव को पहली बार अर्थी पर यमपुरी ले जाने की कथा

धर्मपुरी अर्थात यमपुरी और उसमें निष्क्रियपुरी अर्थात नरकपुरी के निर्माण में समय लगेगा। किन्तु तब तक मृतकों (मृतप्राय रोगी) और मृतों को घरों से हटाने का काम नहीं टाला जा सकता। यम ने अपना कार्य संभालने में देर नहीं की। उसने पशुचर अर्थात पुष्कर के भैंस चराने वालों में से कुछ को बुलाया। यह लोग अपनी पगड़ी में भैंसे के सींग बांधते हैं जिसके कारण हिंसक पशु इन्हें दूर से देखकर सींग वाला पशु ही समझते हैं और आक्रमण करने में कोई जल्दबाजी नहीं करते। 


छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले का एक वनवासी युवक जिसने पगड़ी में भैंसे के सींग बंधे हुए हैं 

अनेक बलिष्ठ भैंस पालकों को यम ने अपना दूत नियुक्त किया है। यमदूत घर-घर से मृतकों और मृतों को खींच कर बाहर निकाल रहे हैं और अपने भैंसो से पर बांधकर ले जा रहे हैं। यम ने भी भैंस-पालक यमदूतों की तरह ही भैंस के सींग वाली पगड़ी बांध ली है और भैंसे पर सवार होकर यमदूतों का नेतृत्व कर रहा है। अब यमदूतों को लग रहा है कि उनका स्वामी भी उनमें से ही एक है। इस तरह, अपनत्व वाले नेतृत्व को पाकर यमदूत अप्रिय काम को भी मन लगाकर कर रहे हैं। 

यम (बायें) और यमदूत (दायें) 

ब्रह्मपुरी में चारों और हाहाकार मच गया है। मानव इतिहास में इससे अधिक अमानवीय घटना आज तक नहीं हुई है। लेकिन इस आपातकालीन उपाय ने मानव जाति को नष्ट होने से बचा लिया है। पुरी से दूर ले जा कर कुछ मृतकों और मृतों को पहाड़ की से नीचे फेंक दिया गया, कुछ को जमीन में दबा दिया गया और कुछ को आग में जला दिया गया। इस वीभत्स घटना के त्रास को मानव समाज की सामूहिक चेतना हजारों वर्षों बाद और सैकड़ों पीढ़ियों के बाद भी कभी भूल नहीं पायी है। आज तक, सिर पर भैंसे के सींग वाली पगड़ी पहने और हाथ में रस्सा लिए यमदूत का भयानक रूप मानव को डराता है। यमदूतों द्वारा पहाड़ की चोटी से नीचे फेंकने और आग में जिंदा जलाने के दृश्य आज भी धार्मिक पुस्तकों के पृष्ठों से जनमानस को डराते हैं।

ब्रह्मपुरी की सफाई के बाद यम ने मृतकों को ले जाने के लिए एक नई व्यवस्था की। अब से भैंसे पर बाँध कर ले जाने की अमानवीय आपातकालीन व्यवस्था को कभी दोहराया नहीं जायेगा। मृतकों को पूरे सम्मान से नरक में ले जाने का प्रबंध होगा। परिजन और प्रियजन भी अगर चाहें तो नरक के द्वार तक मृतक को छोड़ने जा सकेंगे। नियम बन गया है कि सभी लोग अपने घर में किसी भी असाध्य-अशक्त रोगी, मृतक या मृत की सूचना ब्रह्मपुरी की गण-परिषद को दें। गण-परिषद यम को सूचना देती है। यम अपने दूत भेजता है। यमदूत मृतों और मृतकों को पूरे सम्मान से नरक में ले जाते हैं। लेकिन प्रियजन के वियोग के भय से अनेक लोग अपने घरों में मृतों और मृतकों की सूचना नहीं दे रहे। गण-परिषद को मृतों और मृतकों की खोज और सूचनाओं के लिए गुप्तचर नियुक्त करने पड़े हैं।“

आनंद कहता जा रहा था, “दीपक आज मैं यमदूतों के साथ यात्रा कर रहा था। सूचना मिली थी कि एक घर में एक मृतक अर्थात मरणासन्न व्यक्ति है जो संक्रमित है। हम उस घर में पहुंचे। यमदूतों को द्वार पर देख कर मृतक के घर के लोग चीत्कार कर उठे। मृतक भी विलाप करने लगा। उसने यमदूतों से बार-बार विनती की। लेकिन उसकी एक नहीं सुनी गयी। नरक ले जाये जाने को किसी भी सूरत में अवश्यम्भावी जान कर मृतक और उसके परिजनों ने समर्पण कर दिया। उन्होंने यमदूतों से बस कुछ समय रुकने की प्रार्थना की। मृतक के सभी सगे संबंधियों, मित्रों और अन्य प्रियजनों को मृतक से अंतिम भेंट के लिए बुलाया गया। कुछ लोगों से भेंट के बाद मृतक मूर्छित हो गया। देर से आने वालों के लिए यह मिलन अंतिम भेंट न होकर अंतिम दर्शन बन गई है। यमपुरी के मार्ग में जाते हुए, मृतक आराम से लेटी हुई स्थिति में स्थिर रहना चाहिए। इसके लिए विशेष व्यवस्था की गयी है। अतः बांस का एक उपकरण बनाया जा रहा है।

शब्दों से खेलने वाली जुड़वा बहने जीभा-भाषी ने मुझे पूछा कि यह क्या बना रहे हैं”।

मैंने कहा “यह यात्रा के लिए मृतक को स्थिर रखने लिए ‘स्थिरा’ है। आप इसे  स्थिरधर भी कह सकती हो। मृतक के परिजनों के हृदय-विदारक विलाप के बीच भी जीभा और भाषी शब्दों के अविरल खेल में मस्त हो गयीं। आप भी इनके शब्द-विलास को सुनिये कि कैसे स्थिरा और स्थिरधर शब्द अर्थी और स्ट्रेचर  में बदल रहें हैं। अर्थी ही संसार का सबसे पहला स्ट्रेचर है। 

       ·    स्थिरा > स्थिरी > ह्थिरी > य्थरी > यर्थी > अर्थी

  ·      स्थिरधर > स्टिरजर > स्ट्रीचर > स्ट्रेचर  stretcher 

अभी तक चारपाई का आविष्कार नहीं हुआ है। घर में भूमि पर फूस बिछा कर सोने का चलन है। घास-फूस की मोटी सतह या गट्ठा ही शय्या है (गट्ठा > गद्दा)। मृतक की घरेलू शय्या का फूस अर्थी पर नहीं डाला जायेगा। इसमें रोगों के जीवाणु हैं। अर्थी पर नए फूस का गद्दा बनाया गया है। उसके ऊपर नया मृगचर्म डाला गया। मृतक को अच्छी तरह नहलाया जा रहा है ताकि ब्रह्मपुरी के कीटाणु यमपुरी में न पहुँच जाये। यमपुरी में पुराने संक्रमित कपड़ों की भी अनुमति नहीं है। अतः मृतक को नए कपड़े पहने गए हैं।उसे अर्थी पर लेटाया गया। उसके ऊपर नया मृगचर्म ओढ़ाया गया। मृतक ठिठुर रहा है। मार्ग में ठंड न लगे उसके लिए सभी रिश्तेदार एक-एक करके नई शाल उढ़ा रहे हैं। यमपुर पहुँचने में कई दिन लगेंगे। मार्ग में, मृतक के भोजन के लिए उबले हुए चावल में तिल और शहद मिलाकर पेड़े या पिंड बनाए गए हैं। चावल के दो पिंड मृतक के सिरहाने रखे गए हैं। पुष्कर सरोवर में उगे कुछ मखाने (कमल के कच्चे बीज) भी साथ रखे गये । अर्थी पर बांस के दो लंबे डंडों के ऊपर खड़ी हुई छोटी डंडियाँ बाँधी गई हैं। हर खड़ी डंडी की नोक पर एक फल स्थापित किया जा रहा है। अब मृतक के पास रास्ते में खाने के अर्थी पर ही चावल के पिंड या फल का विकल्प है।“

दीपक ने कहा, “रोचक बात है कि हजारों वर्षों बाद भी मृत व्यक्ति के अंतिम यात्रा के लिए वही पुराने डिजाईन की अर्थी का प्रयोग हो रहा है। वही रीति -रिवाज। बस चावल के पिंड की जगह जौ के आटे के पिंड बनाए जाते हैं।

आनंद बोला, “मैंने देखा है कि बंगाल में आज भी चावल उबाल कर उससे पिंड बनाये जाते हैं। अनेक प्रदेशों में जहाँ चावल नहीं उगाया जाता वहां चावल का स्थान जौ और गेहूं ने ले लिया है।“

“ मैं देख रहा हूँ, कि एक व्यक्ति रास्ते के लिए एक घड़े में पीने का पानी और एक हांड़ी में आग के अंगारे साथ लेकर चल रहा है ताकि मृतक के पैदल सहयात्री रास्ते में खाना पका सकें और पानी पी सकें।

घर की बहुओं ने मृतक के चरण स्पर्श किए, अपनी गलतियों और कटु वचनों के लिए माफी मांगी। चरणों पर कुछ मुद्राएं भी रखीं और कहा कि अगर कोई मार्ग में अथवा यमपुरी में आपको कुछ आवश्यकता हो तो यमदूतों से कहकर इन मुद्राओं द्वारा कुछ खरीद लीजिए। इसके बाद मृतक को रस्सी से बांधा जा रहा है, ताकि वह रास्ते में अर्थी पर स्थिर रहे -- गिर ना जाए। लेकिन उसके मुँह को खुला छोड़ दिया है। 

चार परिजनों ने मृतक को अर्थी पर बांधकर अर्थी को कंधों पर उठा लिया है। कुछ परिजन पीछे चल रहे हैं। मृतक यात्रा के आगे, पीछे , दायें और बाएं, चार यमदूत अपने भैंसों पर सवार हैं।

आनंद ने कहा, “बाद के वर्षों में अर्थी को भी विमान की तरह बनाने का फैशन चल पड़ा। जो मृतक जीवित रहते हुए पक्षी-विमानों में उड़कर जाते थे, उनकी अर्थी को विमान का आकर दिया जाता। विमान को फूल-पत्तियों से सजाया जाता। ऐसा लगता कि अर्थी पर लेटा  हुआ मृतक किसी पक्षी-विमान पर उड़ कर जाने वाला है। और बहुत बाद में केवल अति वृद्ध जनों की अर्थी को आदर सहित विमान की तरह सजाये जाने लगा।

आनंद ने देखा, कि अर्थी के आगे, एक व्यक्ति एक चँवर डुला कर मृतक के मुँह से मक्खियाँ हटा रहा है। एक व्यक्ति घंटा बजाता हुआ चल रहा है ताकि ब्रह्मपुरी की संकरी गलियों में लोग रास्ता छोड़ दें और अर्थी वाहकों को अपने कंधो पर बहुत देर तक अर्थी को ना उठाना पड़े। यह घंटा एक तरह से आधुनिक काल में एमुबुलेंस के सायरन का आदिरूप है।

यम के बड़े भाई मनु आजकल मनु स्मृति नाम से विधि-संहिता लिख रहे हैं। यम के अनुरोध पर मनु ने उसमें एक नया नियम भी लिखा, “जब भी मृतक यात्रा कहीं से जा रही हो सभी लोग और वाहन अपने स्थान पर रुक जाए। मृतक को मार्ग में प्रथम वरीयता दी जाए।

“परिजन रो रहे हैं। यमदूतों से प्रार्थना कर रहें हैं कि यमपुर की और मुड़ने से पहले एक बार मृतक को विष्णु के घर ले चलो। शायद विष्णु वैकुंठ से आये हुए हों और मृतक को बचा लें । यमदूतों ने मना किया। उन्हें बताया गया कि यह मृतक की अंतिम इच्छा है, अंतिम आग्रह है। मृतक विष्णु से क्षमा मांगना चाहता है और जो कुछ भी उन्होंने मृतक के लिए और मृतक के समाज के लिए किया था उसके लिए धन्यवाद करना चाहता है। यमदूत अंतिम आग्रह मानने के लिए तैयार हो गए है। शायद उन्हें भी विष्णु के दर्शन की लालसा है। मृतक की ओर से अंतिम आदरांजलि के लिए अर्थी को विष्णु के निवास हरि-मंदिर के द्वार पर रखा गया। हरि-मंदिर के बाहर लगा घंटा बजाया गया। किन्तु किसी ने द्वार नहीं खोला। विष्णु अपने घर ‘हरि मंदिर’ में नहीं हैं। मृतक ने हरि-मंदिर को नमन किया।

फिर एक अर्थीवाहक ने जोर से पुकारा, “हरि का नाम सत्य है”।

दूसरा अर्थीवाहक बोला, “सत्य बोलो गत्य है।“

‘गत्य है’ के घोष के साथ अर्थी को फिर से उठाया गया। एक बार फिर अर्थीवाहकों के पैरों में गति आ गई।   

मृतक ने एक और अंतिम इच्छा बताई। एक बार, बस अंतिम बार, मुझे अपने कार्यस्थल को -- अपनी दुकान को अपनी आंखों से देखेने दो। उसकी इस इच्छा को भी माना गया। अर्थी को उसकी दुकान के सामने ले जाया गया। एक पल वहाँ रुक कर यह मृतक-यात्रा यमपुरी की ओर मुड़ गई।

(शेष है। क्रमशः) 

आपको यह काल्पनिक कथा कैसी लग रही है। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।     

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Monday, September 12, 2022

पितरों के साथ -- यम कथा – 3

 यम कथा – 3

नरक -- विश्व का पहला क्वारंटाइन और शव प्रबंधन केंद्र

लेखक – राजेन्द्र गुप्ता

अभी तक :– देवताओं और दानवों की पौराणिक कथाओं को मानव सभ्यता के प्रारंभिक चरण की कहानियों के रूप में देखा जा सकता है। इन कहानियों के पीछे की मूल घटनाओं की खोज में, जीव-वैज्ञानिक आनंद प्राचीन काल की दुनिया में, पुरखों के साथ एक और यात्रा पर निकला। वह मानव सभ्यता की पहली पुरी या बस्ती ब्रह्मपुरी में जा पहुँचा। ब्रह्मा और विष्णु इसी पुरी में रहते हैं; और शिव इसके ठीक बाहर। वापस आने पर आनंद अपने मित्र दीपक को यात्रा का आँखों देखा हाल सुना रहा है। इस समाज में अभी तक अस्पताल नहीं बना है। शवों के दाह संस्कार या दफनाने का आविष्कार भी नहीं हुआ है। अनेक घरों में मृत शरीर और मृतप्राय रोगी पड़े हुए हैं। संक्रामक रोग फैल रहे हैं।

अब भाग तीन में पढ़िए :- नरक कैसे बना? विश्व के पहले क्वारंटाइन और शव प्रबंधन केंद्र के खुलने की कहानी।

पहले भाग का लिंक : यम कथा – 1

दूसरे भाग का लिंक : यम कथा – 2

चारों ओर अराजकता फैलती जा रही है। लोग मृतकों को जीवन देने वाले ईश्वर समान वैद्यों विष्णु और शिव के लिए आर्तनाद या आरती कर रहे हैं। अशांति से चिंतित ब्रह्मा दोनों महान वैद्यों का आह्वान करना चाहते हैं, अर्थात बुलाना चाहते हैं। लेकिन कोई नहीं जानता कि शिव किस प्रदेश की यात्रा पर हैं। ब्रह्मा जानते हैं कि विष्णु वैकुंठ में हैं, किन्तु वहाँ का मार्ग कोई नहीं जानता। केवल विष्णु को ही वहाँ के आकाश मार्ग की जानकारी है। ब्रह्मा ने मन ही मन विष्णु का आह्वान किया। संयोग से उसी दिन गरुड़ पर सवार विष्णु प्रकट हुए। विष्णु ने आते ही अचेत व्यक्तियों को दो समूहों में बाँटा। एक -- जिनमें कुछ चेतना बाकी थी अर्थात मृतक / मृतप्राय / मरणासन्न। दो – जिनमें कोई चेतना नहीं थी। विष्णु, जिन्हें श्रीपति भी कहा जाता है, ने अनेक श्रीद्रु औषधियों से मृतकों का उपचार शुरू किया। इनमें से दो श्रीद्रु को आज हम तुलसी और हल्दी के नाम से जानते हैं । किन्तु इन मृतप्राय रोगियों की संख्या बहुत अधिक थी। सबकी चिकित्सा कर पाना असंभव था। ये स्वस्थ लोगों को भी संक्रमित कर रहे थे।

विष्णु ने एक क्रांतिकारी उपाय सुझाया। मरणासन्न निष्क्रिय रोगियों को स्वस्थ लोगों से अलग करना होगा। इसके किए एक नई बस्ती या पुरी का निर्माण करना होगा। यह नई बस्ती निष्क्रिय पुरी कहलाएगी। निष्क्रियपुरी ब्रहमपुरी से दूर किसी दुर्गम स्थान पर होगी। वह स्थान इतना दूर और दुर्गम होगा कि दोनों पुरियों के लोग आपस में एक दूसरे से मिल न सकें। ऐसा नहीं किया गया तो पूरा समाज नष्ट हो जाएगा।

अंततः ब्रह्मा, उनके पुत्रों और पुरवासियों ने निराशा, विवशता और भारी मन से विष्णु के निष्क्रियपुरी बनाने के सुझाव को स्वीकार किया। विष्णु ने दूसरा महत्वपूर्ण सुझाव दिया कि सभी निर्जीव शरीरों को धरती में दबाया जाये। लेकिन भावुक लोग प्रियजनों के मृत शरीरों को किसी भी तरह छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। अंततः गण परिषद ने तय किया कि मृत शरीरों को भी निष्क्रिय पुरी में भेजा जाये और अगर दस दिनों तक उनमें कोई चेतना न लौटे तब निष्क्रिय पुरी का प्रशासन उनका उचित निपटान कर सकता है। आपदकाल में कठिन और निष्ठुर निर्णय लेने आवश्यक था।

इस निर्णय पर जनता में हाहाकार मचा गया। ब्रह्मा ने निष्क्रियपुरी प्रकल्प को कार्यान्वित करने के लिए ब्रह्मपुरी की न्याय व्यवस्था संभालने वाले विधि और न्याय मंत्री धर्म को बुलाया। धर्म ब्रह्मा के मानसपुत्र मरीचि का प्रपौत्र था। वह सूर्य का पुत्र और मनु और शनि का भाई था। वह ब्रह्मपुरी की परिषद का सबसे युवा, ऊर्जावान और प्रतिभावान सदस्य था। धर्म निष्क्रिय पुरी के निर्माण और उसकी अध्यक्षता के लिए तैयार नहीं था। किन्तु जब ब्रह्मा ने उसे ब्रह्मपुरी के पशुचर से दक्षिण दिशा की पूरी पृथ्वी का स्वामी घोषित कर दिया तो वह तैयार हो गया। ‘दक्षिण का दिशापाल धर्म’ – यह संबोधन उसके कानों में नगाड़ों की तरह बजने लगा, जिसमें निष्क्रियपुरी भेजे जाने वालों और उनके परिजनों की चीख पुकार डूब रही थी। मन ही मन धर्म सोच रहा था कि जैसे ब्रह्मा ने जिस पुरी को स्थापित किया है उसका नाम ब्रह्मपुरी है इसी तरह वह जिस नई पुरी को वह स्थापित करने जा रहा है उसका नाम धर्मपुरी होगा। धर्मपुरी, वाह ! क्या बात है। धर्मपुरी ब्रह्मपुरी से भी बड़ी होगी। निष्क्रियपुरी तो धर्मपुरी का एक उपनगर होगा। धर्म फूले नहीं समा रहा था। उसका मन रोमांच और उत्साह से भर गया।  

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सुमेरु पर स्थित ब्रह्मपुरी के बाहर विशाल पशुचर से दूर, दक्षिण में एक दुर्गम स्थान को निष्क्रियपुरी चुना गया है। पशुचर के दूर तपते बालू के रेगिस्तान को पार करके एक नदी आती है जो वर्षा ऋतु के अलावा लगभग प्रवाहहीन या जमी हुई रहती है। इस नदी के पार एक पहाड़ है। वहाँ तक पैदल पहुँचने में ब्रह्मपुरी से पूरा दिन लगेगा। निष्क्रियपुरी वहीँ बसायी जाएगी।“

दीपक ने कहा, “बहुत रोचक। मुझे लगता है कि निष्क्रियपुरी प्राचीन विश्व का पहला क्वारंटाइन केंद्र था (quarantine center)

दीपक की बेटी रूचि भी यह वार्ता सुन रही थी। उसने कहा, “हाँ अंकल कोविड काल में हर नगर में क्वारंटाइन केंद्र खोले गए थे।“

आनंद ने कहा, “हाँ बेटी, जब कोविड नहीं था क्वारंटाइन केंद्र तब भी थे। अगर दूसरे देश से कोई संक्रमित रोगी हमारे देश में पहुंचता है तो हवाई अड्डे के पास उसे तब तक क्वारंटाइन कर दिया जाता है जब तक वह संक्रमण मुक्त न हो जाये। आजकल सभी बड़े अस्पतालों में एक क्वारंटाइन वार्ड होता है जिसमे केवल गंभीर और लाइलाज संक्रमण वाले रोगियों को रखा जाता है। ताकि समाज में संक्रमण फैलने से रोका जा सके। निष्क्रियपुरी भी संक्रामक रोगियों, और मृतकों को क्वारंटाइन करने का स्थान था।  दुर्भाग्य से उसमें मृत लोगों के शव भी रखे जा रहे थे, हालांकि उन शवों को सड़ने से रोकने के लिए वे लोग शवों पर तरह-तरह के लेप कर रहे थे। बहुत जल्दी ही निष्क्रियपुरी के व्यवस्थापकों को मृतक और मृत का अन्तर समझ आ गया था। फिर उन्होंने मृतों का जल्दी निपटारा करना शुरू कर दिया। इसके लिए वे मर गए शरीरों को निष्क्रियपुरी में पहाड़ से नीचे गिरा देते, जमीन में दबा देते या आग में जला देते थे। मैं यह सब आगे बताने वाला हूँ।“

दीपक और रुचि के बोलने से आनंद हजारों वर्षों की दुनिया से आज की दुनिया में लौट आया। वापस लौटने के क्रम में उसे शब्दों से खेलने वाली जुड़वा बहनों जीभा और भाषी का शब्द-खेल सुनाई दे रहा था। जीभा और भाषी के इसी खेल को मनुष्यों की आने वाली पीढ़ियाँ सदियों तक दोहराने वाली थीं। एक पीढ़ी से दूसरी और फिर अगली पीढ़ी तक जाते हुए शब्दों में हो रहे क्रमिक परिवर्तन / म्यूटेशन से नए-नए शब्दों की रचना होने वाली थी...  

  • सुमेरु > हुमेरु > जुमेरु > जउमेरु > उजमेरु > अजमेर

  • पशुचर > पशुकर > पुशकर > पुष्कर
  • धर्मराज > धमराज > जमराज > यमराज
  • धर्मपुरी > धमपुरी > जमपुर > यमपुरी
  • दिशापाल > दिजापाल > दिगापाल > दिग्पाल > दिक्पाल
  • निष्क्रियपुरी > निह्क्रियपुरी > निक्रियपुरी > नक्रियपुरी > नरकियपुरी > नरकपुरी
  • निष्क्रिय = क्रियान्त > क्रिवान्त > क्विरांत > क्विरांट > क्वारंटाइन
  • ज्वलपुरी > ह्वलपुरी > ह्यलपुरी > हैलपुरी > हैल hell
  • ज्वालापुर > ज्वानापुर > ज्यानापुल > ज्यानामुल > ज्हानामुन > जहमन > जहन्नम
  • श्रीद्रु > श्रीतरु > तरुश्री > तलुशी > तुलशी > तुलसी
  • श्रीद्रु > हरिद्रु > हरिद्रा > हलिदरा > हलिदया > हल्दी
  • आर्तनाद > आर्त > आरती

(क्रमशः)

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Sunday, September 11, 2022

पितरों के साथ -- यम कथा-2

यम कथा-2

लेखक -- राजेन्द्र गुप्ता 

अभी तक –

देवताओं और दानवों की पौराणिक कथाओं को मानव सभ्यता के प्रारंभिक चरण की कहानियों के रूप में देखा जा सकता है। इन कहानियों के पीछे की मूल घटनाओं की खोज में, जीव-वैज्ञानिक आनंद प्राचीन काल की दुनिया में, पुरखों के साथ एक और यात्रा पर निकला। उसने देखा कि मानवों ने वनवासी जीवन छोड़ कर कृषि को अपनाया है और मानव सभ्यता की पहली पुरी या बस्ती बसायी है।

पहले भाग का लिंक यम कथा – 1

अब आगे यम कथा-2

आनंद अपने मित्र दीपक को अपना यात्रा वृतांत सुना रहा है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश इसी बस्ती में रहते हैं। आप भी सुनिए

“इस पुरी या बस्ती में सबसे बड़ा परिवार ब्रह्मा का है। सुना है कि सबसे अधिक संतान होने के कारण सब लोग उन्हें महाप्रजा कहते थे किन्तु अब यह शब्द बिगड़ कर ब्रह्मा हो गया है।

महा (बड़ा)

+ प्रजा (सन्तान, प्रजा, सन्तति, बच्चे)

= महाप्रजा > प्रजामहा > ब्रजामहा > ब्रहामहा > ब्रहमा

कृषि के आरंभ से ही यह निश्चित हो गया है कि जिस परिवार में सबसे अधिक सदस्य होंगे वही कृषि में सबसे सफल होगा और समाज में उसका ही वर्चस्व होगा। यहाँ सबसे बड़ा परिवार ब्रह्मा का है। कोई आश्चर्य नहीं कि मानव सभ्यता की यह पहली पुरी या बस्ती ब्रह्मपुरी कहलाती है।“

“मैदानी पशुचारी और कृषक सभ्यता में हिंसक पशुओं का खतरा कम हो गया है। लेकिन हिंसक पशुओं से भी बड़ी चुनौतियों ने आ घेरा है। कभी बीमार न होने वाले मानव अब बीमार हो रहे हैं। वन में कभी किसी व्यक्ति को रोग हो भी जाता तो उसे मिट्टी, पानी और पौधों से ही अपना उपचार करना आता था। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं का वैद्य था। वन्य जीवन में प्रत्येक मनुष्य जंगल, जमीन, जल, पौधे और जीव-जंतुओं का सहयात्री था। किन्तु सभ्य समाज में स्थिति बदल गयी है। यहाँ वन्य औषधियों का साथ छूट चूका है और स्थानीय औषधियों की पहचान नहीं हुई है। स्वयं अपना वैद्य होना काम नहीं आ रहा है। हिंसक पशुओं द्वारा शिकार न हो जाने के कारण लोग बूढ़े हो रहे हैं। उन्हें तरह-तरह की बीमारियों भी हो रहीं हैं।  अनेक घरों में अशक्त मृतप्राय रोगी पड़े हुए हैं, अनेक घरों में मृत शरीर भी पड़े हैं। परिजन निर्जीव शरीरों से चिपककर बिलखते रहते हैं। शवों से दुर्गंध आती है। समाज में संक्रामक रोग फैल रहे हैं। कोई नहीं जानता कि मृतप्राय और मृत शरीरों का क्या करें। वन्य जीवन की तरह, इस सभ्य समाज में अशक्त या मरे हुए को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ने की विवशता नहीं है। मरणासन्न हों या मृत सभी अपने हैं, सभी प्रिय हैं।

दीपक ने टोका, “वर्तमान समय में भी हमारी दिल्ली में भी कई बार समाचार आते हैं कि किसी कालोनी में कोई व्यक्ति अपने परिजन की मृत्यु के बाद भी उसके शव के साथ रह रहा था; दुर्गंध आने पर, पड़ोसियों ने पुलिस को बुलाया।”

आनंद बोला, “ऐसे प्रत्येक केस में व्यक्ति मानसिक रूप से विक्षिप्त होता है और समाज से पूरी तरह कटा हुआ होता है। किन्तु विश्व सभ्यता की इस पहली पुरी में मृत शरीरों का घर में पड़े होना मानसिक विक्षिप्तता के कारण नहीं था। किन्तु यह इसलिए था कि सभ्यता के संक्रमण काल में लोग नई चुनौतियों से निपटने की तरीकों से अभी तक अनजान थे। लेकिन शीघ्र ही उन्होंने इस समस्या का उपाय भी खोज लिया। मैं वही बताने जा रहा हूँ।“

आनंद को दीपक का टोकना अच्छा नहीं लगा। वह बोला,

“दीपक मुझे मत टोको। मैं अभी पुरखों के साथ की अनुभूति से अभिभूत हूँ। मैं मानसिक रूप से अभी तक वहाँ से नहीं लौटा हूँ।“

“इन हजारों वर्षों में अनेक शब्द बदल गए हैं। और अनेक शब्दों के अर्थ भी बदल गए हैं। आगे की बात समझने के लिए मृत और मृतक शब्द का अंतर समझना होगा। आजकल हम मृत और मृतक को पर्यायवाची मानते है। पुरखों के उस प्राचीन समाज में ऐसा नहीं था। मृत का अर्थ था जो मर चुका है। जो मृतप्राय या मरणासन्न अर्थात जो मरने वाला था उसके लिए मृतकल्प शब्द था। मूर्छित व्यक्ति भी मृतकल्प था। मृतकल्प को ही संक्षेप में मृतक कहने का चलन था।“

दीपक ने फिर टोका, ‘रुको। मुझे भ्रम हो रहा है। आज की भाषा में मृत और मृतक का अर्थ एक ही है। अपने विवरण में आप इन शब्दों के अलग प्रयोग करोगे तो इससे कहानी और विमर्श में बहुत भ्रम बढ़ेगा और उलझन होगी।“  

आनंद ने कहा “हम मृत और मृतक को एक ही शब्द मान रहे हैं, इसीलिए तो हम पिछले हजारों सालों से भ्रम और उलझन में जी रहे हैं। अब समय आ गया है कि हम इनके दो अलग अर्थ को पहचाने। सच यह है कि समय के अनुसार शब्द बदलते हैं। अनेक शब्दों के प्राचीन और आधुनिक अर्थ एक दूसरे के विलोम हैं। मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ। फिर मृत्यु से संबंधित एक और शब्द पर लौटूंगा जिसका अर्थ बदल गया है। पूर्व काल में आरोपी का अर्थ था-- आरोप लगाने वाला, और आरोपित का अर्थ था -- जिस पर आरोप लगाया गया है। किंतु आधुनिक समय में आरोपी और आरोपित का एक ही अर्थ हो गया है -- जिस पर आरोप लगाया गया है; आरोप लगाने वाले के रूप में आरोपी का अर्थ लुप्त हो चुका है। ठीक। अब आगे बढ़ें?

“ठीक है।“ दीपक ने कहा।

“उस समय की संस्कृत में एक शब्द था ‘श्वा’ जिसका अर्थ था हवा। श्वा > ह्व़ा > हवा।

लेकिन अब श्वा का अर्थ कुत्ता है। हवा के अर्थ में श्वा शब्द विलुप्त हो चुका है, लेकिन इसकी छाप अनेक शब्दों में देखी जा सकती है, जैसे श्वास, श्वसन, स्वसन, स्वस्थ, श्वसिति, आश्वसिति, आश्वासन।

आनंद ने आगे कहा, “वन में जब किसी मानव या प्राणी का कोई मृत शरीर कहीं पड़ा रह जाता था तो वह सड़ने के बाद मृदा या मिट्टी में बदल जाता था। लेकिन हर शरीर में मृदा कारक पदार्थ के अतिरिक्त कुछ स्थाई पदार्थ भी था जो सड़ता नहीं था। यह स्थाई रह गया पदार्थ ही ‘स्थाई’ शब्द में बदलाव के बाद अस्थि, ऑस्टियो और हड्डी हो गया।

स्थाई > हथाई > हडाई > हड्डी। इसी तरह से स्थाई से ही हठी शब्द बना। स्थाई > हठायी हठी।

स्थाई > अस्थाई > अस्थी (पुरबिया हिन्दी में स्थाई को अस्थाई कहते हैं)

अस्थि > ओस्थी > ओस्थियो osteo

“बहुत रोचक”, दीपक ने कहा।

हमेशा की तरह आनंद ने कहा, “हम विषय से और अधिक भटकने से पहले फिर पुरखों के पास लौटते हैं। आनंद ने एक बार फिर आँखें बंद की और वह ब्रह्मपुरी में लौट गया। वह बोल रहा था ...

“घर- घर में मृत और मृतक पड़े हुए हैं।  संक्रामक रोग फैल रहे हैं। मृत और मृतक का परिवार और समाज के बीच अधिक पड़े रहना बहुत बड़ा खतरा है। किन्तु शवों के दाह संस्कार या दफनाने का आविष्कार अभी नहीं हुआ है। अपने प्रिय मृतकों और मृतों को उठा कर जानवरों के खाने के लिए वन में तो नहीं छोड़ा जा सकता। ब्रह्मपुरी में कोई साधारण स्वयं-वैद्य इतनी बड़ी महामारी से नहीं निपट सकता। बस्ती में दो बड़े वैद्य हैं जिनसे कुछ आशा की जा सकती है, लेकिन वे दोनों ही उपलब्ध नहीं हैं। एक हैं शिव। वह बस्ती बहुत दूर, वन की सीमा पर पीपल के पेड़ के नीचे रहते हैं। उनके पास विष का अचूक उपचार है। सांप के काटने से और जंगली विषैले फलों के खाने के कारण जिन लोगों के प्राण संकट में पड़ जाते हैं, ऐसे हजारों लोगों को शिव ने मरने से बचाया है। यह रोचक है कि शिव के अनेक नामों में एक नाम वैद्यनाथ भी है। मरते हुए को जीवन देने वाले शिव को लोग ईश्वर ही मानते हैं। लेकिन उनका निश्चय है वे कभी बस्ती में नहीं आयेंगे। वैसे भी, शिव आए दिन यात्रा करने वाले, अखण्ड यायावर हैं। आजकल भी यात्रा पर हैं। वे कब अपने धाम पर लौटेंगे, कोई नहीं जानता। एक और वैद्य राज हैं, हरि। उनके पास भी अनेक विषहारी औषधियों का अनुपम ज्ञान है। हरि को  लोग विष्णु कहते हैं।

विष + नहीं = विषनहीं > विषणयी > विष्णु

दीपक आप को याद हैं न कि विष्णु सहस्रनाम में विष्णु का एक नाम वैद्य भी है। वह दिन-रात औषधीय अनुसंधान में लगे रहते हैं। विष्णु ने तुलसी, हल्दी और अनेक औषधीय पौधों की खोज की है। जब से विष्णु ने एक विशालकाय पक्षी गरुड़ को पालतू बनाया और उसका वाहन के रूप में उपयोग करने लगे हैं, वह एक हवाई यात्री बन गए हैं; वह भी आए दिन यात्रा करने वाले। विष्णु गरुड़ पर बैठ कर औषधीय और सुगंधित पौधों की खोज में जाते रहते हैं। कुछ समय पहले उन्होंने कहीं बहुत दूर औषधीय और सुगंधित पौधों की घाटी खोज निकाली है। वहाँ अनेक दुर्लभ और अनुपम औषधीय पौधे हैं। विष्णु इस घाटी को विगंधा कहते हैं। सुना है कि विष्णु विगंधा में ही अपना स्थायी आवास बनाना चाहते हैं। लोग विष्णु के नए धाम विगंधा  को गलत उच्चारण से बैकुंठ कहते हैं।  

वि + गंधा = विगंधा > बिगंध > बैगुंध > बैकुंध > बैकुंठ 

विष्णु हमेशा ब्रह्मपुरी में लौटने पर सभी पुरवासियों के लिए अनेक औषधियां लाते हैं। लेकिन कोई नहीं जानता कि विष्णु अब अगली बार कब आएंगे।  

(क्रमशः)

पहले भाग का लिंक यम कथा – 1

क्षारी-सागर में एनाकोण्डाओं की शैया पर आराम करते हुए भगवान विष्णु

Saturday, September 10, 2022

पितरों के साथ --- यम कथा -1

 यम कथा-1

लेखक -- राजेन्द्र गुप्ता 

देवताओं और दानवों की पौराणिक कथाओं को मानव सभ्यता के प्रारंभिक चरण की कहानियों के रूप में देखा जा सकता है। सभ्यता के आरंभ से लेकर आज तकहमारे पूर्वजों की सैकड़ों पीढ़ियों ने मुँह-बोले शब्दों के माध्यम से ही अपने बच्चों को इन घटनाओं के विषय में बार-बार बताया होगा। किन्तु इस बीच उच्चारण में बदलाव के चलतेकहानियों के मूल शब्दों में उसी तरह म्यूटेशन या परिवर्तन होते गए जैसे की हमारे आनुवंशिक जीन के डीएनए में होते रहते हैं। शब्दों में हुए इन परिवर्तनों के कारणअधिकतर कहानियों का मूल अर्थप्राचीन काल में आँखों-देखी घटनाओं के वर्णन से पूरी तरह से बदल गया होगा। मूल घटनाओं की खोज मेंजीव-वैज्ञानिक आनंद प्राचीन काल की स्वप्निल दुनिया मेंपुरखों के साथ एक और यात्रा पर निकला। और इस बार वह मानव सभ्यता के पहले पुर में जा पहुंचा है। जंगलों में घूमन्तू शिकारी जीवन और कंद-मूल-फल के संग्रह का जीवन छोड़ कर मानव ने खेती शुरू की है और विश्व का पहला पुर बसाया है। लेकिन इस सभ्य समाज पर एक संकट गहरा गया है। लाखों वर्षों के वन्य जीवन में इन लोगों ने कभी किसी बूढ़े पुरुष या बूढ़ी स्त्री को नहीं देखा था। लेकिन अब, पुर में लोग बूढ़े हो रहे हैं। उन्हें तरह-तरह के रोग हो रहे हैं। अनेक घरों में अशक्त मृतप्रायः रोगी पड़े हुए हैं, अनेक घरों में मृत शरीर भी पड़े हैं। परिजन निर्जीव शरीरों से चिपककर बिलखते रहते हैं। शवों से दुर्गंध आती है।  समाज में संक्रामक रोग फैल रहे हैं।  कोई नहीं जानता कि मृतप्रायः और मृत शरीरों का क्या करें।

आनंद अपने मित्र दीपक को पूरा विवरण बता रहा है। आप भी सुनिये ...  

आनंद की आँखें बंद हैं। वह बोल रहा है,

“लगभग 15,000 वर्ष पहले की बात है। हिमयुग समाप्त होने पर धरती के पर्यावरण में भारी परिवर्तन आया है।  पूरे भूमंडल पर गर्मी बढ़ रही है।  आजकल की भाषा में इसे ग्लोबल वार्मिंग (global warming) या भूमंडलीय ऊष्मीकरण कहते हैं।  बढ़ते तापमान से यूरोप के अधिकांश भाग की धरती पर जमी हुई बर्फ पिघल गयी है।  भारत में हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली नदियों का जलस्तर बढ़ गया है। लेकिन हिमालय के दक्षिण में, पूरे मध्य-भारत और दक्षिण भारत के पहाड़ों और वनों में सभी नदियाँ और झरने सूख रहे हैं।  इन्हीं पहाड़ी वनों में, हमारे घुमंतू, आहार-संग्राहक और शिकारी पुरखों की सैकड़ों पीढ़ियों ने जीवन बिताया है।  वनों में सब झरने और नदियों के सूख जाने के बाद पुरखों को उत्तर भारत के मैदानों में नदियों और तालाबों के किनारे स्थायी रूप से बसना पड़ा है। मैं राजस्थान में अजमेर-पुष्कर क्षेत्र में विश्व के पहले पुर में पुरखों के साथ हूँ। यह सभ्यता का आरंभ है। सभ्य जीवन पुरखों की पसंद नहीं अपितु एक पीड़ादायक विवशता है।  वन्य जीवन से सभ्य जीवन अपनाने के संक्रमण काल में उनकी जीवन शैली में क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हैं।  वन में रहते हुए, प्रतिपल जंगली जानवरों से जूझते हुए, अपनी जान बचाना और साथ में गर्भवती स्त्रियों और शिशुओं की जान बचाना ही प्राथमिकता थी।  मरे हुए बच्चे को छाती से चिपका कर घूमने की वानरी प्रवृत्ति भी वे छोड़ चुके थे।  वे समझ चुके थे कि मरे बच्चे को छाती से चिपकाये रखने से  रखने का माँ के जीवन को रोगों का खतरा था।  जंगल में दौड़ कर अपने आपको पशु से बचाने के समय भी मरे बच्चे को लादे रहने से दौड़ने की गति धीमी हो जाती थी।  अतः मरे हुए बच्चों को पशु से खाने से बचाने के लिए जमीन में दबाने की प्रथा शुरू हो चुकी थी। उस निरंतर गतिशील समाज में जब कोई वयस्क व्यक्ति भी रोग से अशक्त हो जाता या घायल हो कर पंगु हो जाता था तो उसे पीछे ही छोड़ना पड़ता था।  जब शिकार से लौट कर आते थे, तब तक अशक्त रोगियों और अपंगों को हिंस्र पशु खा चुके होते थे।  कभी-कभी उनके कंकाल ही मिलते थे।  मानव के इस वनवासी जीवन को केवल तीन शब्दों में परिभाषित किया जा सकता था, “सबल ही बचेगा”।  यही कारण है कि लाखों वर्षों के वन्य जीवन में युवा ही शिकार से वापस  लौटे थे।  सच तो यह है कि हमारे इन पुरखों ने कभी किसी बूढ़े पुरुष या बूढ़ी स्त्री को नहीं देखा था।

(क्रमशः)
आपकी पसंद के लिए -- 

क्षारी-सागर में एनाकोण्डाओं की शैया पर आराम करते हुए भगवान विष्णु

Monday, July 27, 2020

क्या आप भी 'श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन' गलत गा रहे हैं?

धार्मिक ग्रंथों के पन्ने अनेक बार बिखर कर गलत क्रम में आगे पीछे हो गए - 2. श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन

 

लेखक - राजेन्द्र गुप्ता


प्राचीन काल में धार्मिक ग्रंथ वृक्षों की छाल और पत्तों से बने पृष्ठों पर लिखे जाते थे। बाद में कागज पर लिखे जाने लगे। इन पृष्ठों आज की पुस्तक की तरह जिल्द में नहीं बांधा जाता था। इन्हें क्रम में लगाकर डोरी से बांधकर कपड़े में लपेट कर रखा जाता था। किन्तु ऐसा लगता है कि अनेक बार यह पृष्ठ बिखर जाते थे और किसी गलत क्रम में बांध दिए जाते थे। गलत क्रम में आगे-पीछे होने से कई बार कथा का अर्थ और संदर्भ बदल जाता था। 


आपने हनुमान चालीसा का पिछला उदाहरण पढ़ा। -- क्या आप भी हनुमान चालीसा गाने में एक बड़ी गलती कर रहे हैं? अब नया उदाहरण प्रस्तुत है। 


2. श्री राम स्तुति ।। 


'श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन' सबसे लोकप्रिय सबसे प्रसिद्ध राम भजन है। यह तुलसीदास जी की प्रसिद्ध पुस्तक विनय पत्रिका की 45वीं स्तुति है। विनय पत्रिका से इसका मूल पाठ और अर्थ इस लेख के अंत में दिया गया है ।


इस भजन को गाते हुए भक्त-गण एक विचित्र भूल करते हैं। वे भजन के बाद तुलसीदास जी के श्रीरामचारितमानस से एक छंद और एक सोरठा गाते हैं --

छंद 

मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सावरो । 

करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥६॥

एही भांति गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषीं अली । 

तुलसी भावानिः पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मंदिर चली ॥७॥


अर्थ:- जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर साँवला वर (श्रीरामचंद्रजी) तुमको मिलेंगे । वह दया का खजाना और सुजान (सर्वग्य) है । तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है ॥६॥

इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियाँ ह्रदय मे हर्षित हुई । तुलसीदासजी कहते हैं- भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चली ॥७॥


सोरठा 

जानी गौरी अनुकूल, सिय हिय हरषु न जाइ कहि । 

मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥८॥


अर्थ:- गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के ह्रदय में जो हरष हुआ वह कहा नही जा सकता । सुंदर मंगलो के मूल उनके बाये अंग फडकने लगे ॥८॥


ध्यान दीजिए कि 'श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन' विनय पत्रिका ग्रंथ से श्री राम की स्तुति है। इसके अंत में जो छंद और दोहा गाये जाते हैं  उनका  श्रीराम की स्तुति से कोई संबंध नहीं है। वे छंद और सोरठा  श्रीरामचरितमानस के बालकांड के उस प्रसंग से लिए गए हैं जहां सीता स्वयंवर से पहले सीता जी गौरी पूजन के लिए जाती हैं (बालकाण्ड दोहा 236)। ऐसा लगता है कि यह भी पूर्व काल में श्रीरामचरितमानस और विनय पत्रिका के पृष्ठों के बिखर जाने और उन्हें गलत जगह लगा दिए जाने का परिणाम है।


श्रीराम स्तुति का अंतिम पद है --

इति वदति तुलसीदास, शंकर शेष मुनि-मन-रंजनं । 

मम ह्रदय कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं ॥५॥


इसके बाद 'मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु' इत्यादि गाना गलत है। ------------------------------------------------ *'श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन' का मूल पाठ (विनय पत्रिका से)*


श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणं ।।

नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज पद कंजारुणं ।।१।।


अर्थ:- हे मन ! कृपालु श्रीरामचंद्रजी का भजन कर, वे संसार के जन्म-मरण रूप दारुण भय को दूर करने वाले है । उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान है । मुख-हाथ और चरण भी लालकमल के सदृश हैं ॥१॥


कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरम । 

पट पीत मानहु तडित रूचि-शुची नौमी, जनक सुतावरं ॥२॥


अर्थ:- उनके सौंदर्य की छ्टा अगणित कामदेवो से बढ्कर है । उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुंदर वर्ण है । पीताम्बर मेघरूप शरीर मे मानो बिजली के समान चमक रहा है । ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजी को मै नमस्कार करता हूँ ॥२॥


भजु दीनबंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनं । 

रघुनंद आनंद कंद कोशल चन्द्र दशरथ नंदनम ॥३॥


अर्थ:- हे मन ! दीनों के बंधू, सुर्य के समान तेजस्वी, दानव और दैत्यो के वंश का समूल नाश करने वाले, आनन्दकंद, कोशल-देशरूपी आकाश मे निर्मल चंद्र्मा के समान, दशरथनंदन श्रीराम का भजन कर ॥३॥


सिर मुकुट कुंडल तिलक चारू उदारु अंग विभुषणं । 

आजानुभुज शर चाप-धर, संग्राम-जित-खर दूषणं ॥४॥


अर्थ:- जिनके मस्तक पर रत्नजडित मुकुट, कानों में कुण्डल, भाल पर तिलक और प्रत्येक अंग मे सुंदर आभूषण सुशोभित हो रहे है । जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी है । जो धनुष-बाण लिये हुए है, जिन्होने संग्राम में खर-दूषण को जीत लिया है ॥४॥


इति वदति तुलसीदास, शंकर शेष मुनि-मन-रंजनं । 

मम ह्रदय कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं ॥५॥


अर्थ:- जो शिव, शेषजी और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभादि शत्रुओं का नाश करने वाले है । तुलसीदास प्रार्थना करते हैं कि वे श्रीरघुनाथजी मेरे ह्रदय कमल में सदा निवास करे ॥५॥

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आभार इस लेख को लिखते समय मुझे तुलसी साहित्य के विद्वान और मेरे मित्र डा. अवनीजेश अवस्थी से विचार-विमर्श का लाभ मिला। उनका बहुत आभार।


Thursday, May 28, 2020

क्या आप भी हनुमान चालीसा गाने में एक बड़ी गलती कर रहे हैं?

धार्मिक ग्रंथों के पन्ने अनेक बार बिखर कर गलत क्रम में आगे पीछे हो गए - 1
हनुमान चालीसा


लेखक -- राजेन्द्र गुप्ता

मेरे ब्लॉग 'शब्दों का डीएनए' 'DNA OF WORDS' की मुख्य विषय वस्तु शब्दों में परिवर्तन है। इस ब्लॉग में शब्दों में वर्णों का क्रम बदल जाने से नए शब्द बनने के अनेक उदाहरण हैं। इसमें शब्दों में परिवर्तन के कारण कुछ धार्मिक कथाओं में अर्थ का अनर्थ होने के उदाहरण भी हैं। आज की पोस्ट शब्दों में बदलाव से हटकर है। यह दिखाती है कि कई बार पुस्तक के पृष्ठों के क्रम में बदलाव से भी ग्रंथों में गड़बड़ हुई है।

प्राचीन काल में धार्मिक ग्रंथ वृक्षों की छाल और पत्तों से बने पृष्ठों पर लिखे जाते थे। बाद में कागज
के पृष्ठों पर लिखे जाने लगे। इन पृष्ठों को आजकल की पुस्तकों 
की तरह जिल्द में नहीं बांधा जाता था। इन्हें क्रम में लगाकर डोरी से बांधकर कपड़े में लपेट कर रखा जाता था। किन्तु ऐसा लगता है कि अनेक बार यह पृष्ठ बिखर जाते थे और किसी गलत क्रम में बांध दिए जाते थे। गलत क्रम में आगे-पीछे होने से कई बार कथा का अर्थ और संदर्भ बदल जाता था। 

उदाहरण प्रस्तुत हैं।

1. हनुमान चालीसा
यह तुलसीदास जी रचित हनुमान जी की स्तुति है। किंतु 
बड़ी अजीब बात है कि इस हनुमान स्तुति से पहले एक दोहा गाया जाता है जिसमें कहा गया है कि अब मैं श्री राम की स्तुति शुरू करता हूँ!! 

“श्रीगुरु चरन सरोज रज
निजमनु मुकुरु सुधारि
बरनउँ रघुबर बिमल जसु
जो दायकु फल चारि।”
अर्थ -- “(तुलसीदास कहते हैं) श्री गुरु जी के चरण कमलों की धूल से मैं अपने मन रूपी दर्पण को साफ करके राम जी के उस विमल यश का वर्णन करूंगा जो (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूपी) चारों फलों का दायक है।
मूल रूप से यह दोहा तुलसीदास जी रचित श्रीरामचरितमानस में अयोध्याकाण्ड के आरंभ में मंगलाचरण श्लोकों के तुरंत बाद आया है। पूरे अयोध्याकाण्ड में और उसके बाद अरण्यकाण्ड में भी राम कथा में हनुमान जी का वर्णन नहीं है। हनुमान जी पहली बार किष्किंधाकाण्ड में आते हैं।

यह बहुत अटपटी बात है कि आप शुरू में कहें कि मैं राम जी का गुणगान करुंगा और फिर हनुमान जी का गुणगान करते रहें, रामजी की बात भी नहीं करें। हनुमान चालीसा की चालीसों चौपाइयों और अंतिम दोहे में हनुमान जी का गुणगान है, राम जी का नहीं।

बात साफ है कि “श्रीगुरु चरन सरोज रज" दोहे का हनुमान चालीसा से कोई संबंध नहीं है। ऐसा लगता है कि यह पृष्ठों के बिखर जाने और उन्हें गलत जगह लगा दिए जाने का परिणाम है। हनुमान चालीसा गाने से पहले "श्रीगुरु चरन सरोज रज" दोहा गाना गलत है।

अगली बार आप हनुमान चालीसा गाने से पहले केवल हनुमान जी के आह्वान से शुरू करिए --
" बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार" 

और फिर 
" जय हनुमान..............आदि चालीस चौपाइयाँ   

अगली बार -- आप '
श्रीरामचंद्र कृपालु भज मन' गाने में एक बड़ी गलती कर रहे हैं

Thursday, April 16, 2020

सूतक शब्द कहाँ से आया?

कोरोना वायरस महामारी के समय में सूतक शब्द की चर्चा है। ऐसा लगता है कि पूरी दुनिया को सूतक लगा है। सूतक संस्कृत का शब्द है। इसका मूल अर्थ है -- अपवित्रता / अशुद्धता / अशौच। इस शब्द का प्रयोग विशेष स्थितियों में परिवार वालों को होने वाली अशुद्धता के लिए होता हैजैसे 1. जननाशौच-- बच्चे के जन्म के समय या स्त्री के गर्भपात के कारण; 2. गाय के बच्चा देने पर; 3. मरणाशौच -- परिवार में किसी के मरने पर। 4. सूर्य या चंद्रमा का ग्रहण के समय।
हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार सूतक की अशुद्धता निश्चित अवधि के लिए रहती है। जैसे बच्चा पैदा होने पर 10 दिन और मृत्यु होने पर 12 दिन के लिए। सूतक के आरंभ होते ही घर में रखे हुए पानी और भोजन को अपवित्र मान कर फेंक दिया जाता है। परिवार जनों के द्वारा द्वारा अनेक वस्तुओं को छूना मना होता है। परिवार में धार्मिक क्रियाएं मना होती हैं। किसी को भी सूतक लगे परिवार के भोजन या पानी को छूना मना होता है। किसी की मृत्यु होने पर सूतक की अवधि में उस परिवार में भोजन बनाना भी मना होता है। गुल्लक में रुपया डालने भी मना है। आधुनिक युग में अधिकतर परिवारों में व्यावहारिक कारणों से सूतक के निषेधों का पूरा पालन नहीं किया जाता। 
सूतक की अवधि समाप्त होने पर घर की शुद्धि के लिए औषधीय वनस्पतियों की हविषा दे कर हवन किया जाता है।

ऐसा मानने के पर्याप्त कारण हैं कि प्राचीन काल में सूतक प्रथा आरंभ करने के पीछे संक्रमण रोकने के लिए जन स्वास्थ्य की नीति रही होगी।

सूतक शब्द का उत्स एक रहस्य है। संस्कृत व्याकरण के नियम के अनुसार सूतक शब्द का उत्स सूत होना चाहिए
सूत > सूतक
  
सूत के अनेक अर्थ हैंजैसे 1. जन्मा हुआउत्पन्न। 2. सारथी अर्थात रथ चलाने वाला। 3. बंदीजन। 4. सूर्य। 5. पारा।

सूत शब्द का कोई भी अर्थ सूतक प्रथा में अंतर्हित छुआ-छूत की भावना को नहीं छूता। सूत शब्द के इन विभिन्न अर्थों में कुछ भी समानता नहीं है। अतः इन सभी अर्थों के लिए सूत शब्द के अनेक उत्स होने चाहिए। 

मेरा प्रस्ताव है कि सूतक शब्द छूत पर आधारित शब्द छूतक का अपभ्रंश है। मूल छूतक शब्द विलुप्त हो चुका है। 

छूत > छूतक > सूतक 

सूतक का सूत से कोई संबंध नहीं है। 

आपका क्या विचार हैक्या आप सहमत हैंआपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।