A linguistic fiction: Searching for the mother tongue of our first-ancestors, and trying for a grand-unification of all language-families भाषा-वैज्ञानिक कल्पना: हम सभी के प्रथम-पुरखों की मातृभाषा की खोज, और सभी भाषा-परिवारों के महा-मिलन का प्रयास
Monday, September 25, 2017
Saturday, July 22, 2017
हनुमान-1. बाल हनुमान ने उगते सूरज को खाया. -- एक अविश्वसनीय गाथा के बनने की कथा
Hanuman-1. Child Hanuman eats the rising Sun -- Making of an incredible legend
भारतीय संस्कृति में हनुमान जी जैसा कोई दूसरा देवता नहीं हैं. हनुमान जी में अतुलित बल है. उनसे बड़ा गुणी कोई और नहीं है. वह ज्ञानियों में सबसे पहले ज्ञानी हैं. गोस्वामी तुलसी दास जी ने हनुमान जी की स्तुति में 'हनुमान चालीसा' लिखा था. इसमें एक दोहा और चालीस चौपाईयां हैं. प्रतिदिन करोड़ों हिन्दू 'हनुमान चालीसा' का पाठ करते हैं. इसमें एक चौपाई इस प्रकार है --
"जुग सहस्र जोजन पर भानु । लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥"
अर्थात, सूर्य (धरती से) इतने योजन की दूरी पर है कि उस पर पहुंचने के लिए एक हजार युग लग जाएं। उसी सूर्य को हनुमान जी ने एक मीठा फल समझकर निगल लिया (एक योजन = लगभग 12 किलो मीटर).
इस चौपाई को सुन कर या पढ़ कर, विज्ञान के विद्यार्थी के मन में आस्था और विज्ञान टकराते हैं. धरती से सूरज की दूरी 14 लाख 96 हजार किलोमीटर है. वहाँ तक कोई कैसे उड़ कर जा सकता है? सूरज का व्यास धरती के व्यास से 109 गुणा अधिक हैं. 14 लाख किलोमीटर व्यास वाले सूरज को कोई कैसे अपने हाथों में उठा सकता है? सूरज आग का गोला है. उसकी सतह का तापमान 5,505°C है, जो उबलते हुए पानी के तापमान से 505 गुणा अधिक गरम है! इतने गरम सूरज को कोई कैसे खा सकता है? विज्ञान के अनुसार यह असंभव है. आस्था के अनुसार संभव है. क्योंकि भगवान सर्वशक्तिमान हैं, भगवान कुछ भी कर सकते हैं. भगवान किसी से कुछ भी करा सकते हैं. लेकिन आस्था की भी अपनी एक मर्यादा होती है. सूरज, चाँद, धरती और अन्य सभी पिंड, प्रकृति के नियमों से ही चलते हैं. अवतार-वाद के अनुसार जब-जब भगवान धरती पर अवतार लेते हैं, तब-तब वे स्वयं भी प्रकृति के नियमों के आधीन होते हैं. उनसे बंध जाते हैं. वे सभी काम मनुष्यों की तरह ही करते हैं. माँ की कोख से जन्म लेते हैं. रोते भी हैं. राम अवतार में अगर उनकी पत्नी का अपहरण हो जाता है, तब वह सर्वशक्तिमान भगवान होते हुए भी असहाय होते हैं. उन्हें सामान्य मनुष्य की तरह मरना भी होता है. कृष्ण-अवतार में तो वे एक शिकारी के हाथों मारे जाते हैं! निश्चय ही, अगर कोई मनुष्य उड़ कर, हाथों में पकड़ कर सूरज को नहीं खा सकता तो फिर मनुष्य के अवतार में भगवान भी उड़ कर उसे नहीं खा सकते. ठीक है. मान लिया. तब प्रश्न उठता है कि बाल हनुमान के द्वारा सूरज को खाने की कहानी कहाँ से आयी? चलिये पता करते हैं. लेकिन इसके लिए आज एक बार फिर, हमें पुरखों के साथ एक नयी यात्रा पर चलना होगा. एक निराली स्वप्निल दुनिया में. प्राचीन काल के एक वन में जहाँ बाल हनुमान अपने मित्रों के साथ भोजन के लिए फलों की खोज में घूम रहे हैं. लेकिन इस यात्रा पर चलने से पहले हमें अपना दृष्टिकोण साफ़ करना होगा.
हमारी पौराणिक कहानियाँ, वास्तव में, हमारी सभ्यता और संस्कृति के उदय और उसके विकास की कहानियाँ हैं. इनमें, हमारे वनवासी घुमंतू पुरखों का वर्णन है. वे पशुओं को पालतू बनाते हैं. वनवासी जीवन छोड़ कर फलों की बागबानी और पशु चराने का काम करते हैं. फिर खेती करते हैं. गाँव और नगर बसाते हैं. वेद-पुराणों में हमें भोजन, बर्तनों, उपकरणों, वाहनों, और हथियारों के क्रमिक विकास का विवरण भी मिलता है. पुराणों की कहानियों में हम विज्ञान, तकनीकी और दर्शन शास्त्र के विकास की झलक भी पातें हैं. हजारों वर्षों से हमारे पूर्वजों की सैंकड़ों पीढ़ियों ने अपने बच्चों को उन प्राचीन घटनाओं के विषय में कहानियों के माध्यम से ही बताया है. कहानियों को रोचक बनाने के लिए, पुरखे कुछ बातें अपनी कल्पना से भी जोड़ते रहे हैं. इन हजारों वर्षों में शब्दों के उच्चारण में भी बदलाव होते गए. अतः कहानियों के मूल शब्द बदलते गए और उसके साथ अर्थ भी बदलते गए. इस कारण, पुराणों की अनेक कहानियाँ का मूल अर्थ, प्राचीन काल में आँखों-देखी घटनाओं के वर्णन से पूरी तरह से बदल गया. यह कहानियाँ विचित्र और असंभव घटनाओं से भर गयीं. पुराणों की कहानियों पर इसी दृष्टिकोण को लेकर आज की यात्रा शुरू करते हैं. कहानी पढ़ते समय कृपया मोटे अक्षरों वाले शब्दों को याद रखिये. सारा रहस्य इन्हीं शब्दों में छिपा है.
एक घना वन. उसके बीच से निकलती एक नदी. वन के ठीक बाहर, नदी किनारे एक विशाल लोक बसा हुआ हैं. इस लोक के लोग खेती नहीं करते. फलों की बागबानी करते हैं. सभी के पास फलों की अपनी फलबाड़ी हैं. अधिकतर पेड़ों पर गर्मी के मौसम में ही फल लगते हैं. प्रतिदिन भोजन के बाद जो फल बच जाते हैं, उन्हें सुखाया जाता है. इन्हीं सूखे फलों को वर्ष के बाकी मौसमों में खाया जाता है. जैसे आम को सुखा कर बनाया गया आम-पापड़. फलों की अधिकता के कारण इस लोक को फललोक, फलबाड़ी, या फलपुर भी कहा जाता है. लेकिन भिन्न उच्चारण के कारण, कुछ लोग इस बस्ती को आफल-लोक, आफलपुर या आफलबाड़ी भी कहते हैं. उसी तरह जैसे कि पूर्वांचल के लोग स्थाई को अस्थाई और स्पष्ट को अस्पष्ट कहते हैं! लेकिन, हो सकता है कि फलों की अधिकता को दिखाने के लिए फलबाड़ी को आफलबाड़ी कहा जाता हो! यहाँ के राजा को सभी लोग राज्यन (राज > राजन; राज्य > राज्यन) कहते हैं. आफलबाड़ी के लोग अपने उद्यानों की जी-जान से रक्षा करते हैं. उन्हें आफलबाड़ी के पास के वन में रहने वाले वनवासियों से हमेशा खतरा रहता है. आफलबाड़ी वाले वनवासियों को वानर कहते हैं (वन से वानर). आफलबाड़ी में काले, गोरे, पीले आदि अनेक रंगों के लोग रहते हैं. पर सभी वानरों (वनवासियों) का रंग बन्दर के रंग जैसा भूरा है. संस्कृत में बन्दर जैसे भूरे या ताम्बे जैसे भूरे रंग को कपिल कहते हैं. शायद तांबे के लिए अंग्रेजी में कॉपर copper शब्द संस्कृत के कपिल शब्द से ही बना होगा. अतः भूरा रंग होने के कारण आफलबाड़ी वाले वानरों को 'कपिल' भी कहते हैं. वानर लोग आफलबाड़ी के लोगों को 'आफल' कहते हैं, यानी जिनके पास फलों की अधिकता हो. वानरों ने अभी फलबाड़ी लगाना नहीं सीखा है. वे वन के कन्द-मूल-फल और जंतुओं पर ही निर्भर हैं. जब कभी वन में फलों की कमी होती है, तब वानर-टोली आफलबाड़ी के उद्यानों में घुस जाती है. इसलिए आफलबाड़ी के उद्यानों में रखवालों को नियुक्त किया गया है. उनके प्रमुख मारक वीर का नाम मार्त्य है. आफलबाड़ी और वनवासियों का रिश्ता केवल फलों की चोरी और रखवाली का नहीं है. आफलबाड़ी के पुरुष अनेक वानर बच्चों के पिता बन चुके हैं. जैसे, राजा राज्यन, एक वानरी अरूणा के बड़े पुत्र का पिता है. सूर्य नामक एक प्रबुद्ध नागरिक अरुणा के छोटे पुत्र का पिता है. वीर सैनिक मार्त्य, अञ्जना नाम की वानरी के बच्चे का पिता है. आफलबाड़ी में बच्चों को पिता के नाम से जाना जाता है, जैसे राज्यन का पुत्र राज्यनज या राज्यनय, सूर्य का पुत्र सूर्यज या सूर्यय. मार्त्य का पुत्र मार्त्यज. किन्तु वानर टोले में बच्चों को माता के नाम से ही जानते हैं. अतः अञ्जना और मार्त्य के बच्चे को सभी लोग आञ्जनेय या अञ्जनापुत्र कहते हैं, और अरुणा के बच्चों को आरुणेय. लेकिन अरुणा के तो दो बेटे हैं, दोनों को आरुणेय कहने से भ्रम होता है. इसीलिए जन्म से ही मोटे और बलशाली बड़े बेटे को बली आरुणेय कहते हैं.
आज हम वानर टोली के साथ हैं. यहाँ कई दिनों से लगातार बरसात हो रही है. कोई पुरुष कन्द-मूल-फल की खोज में नहीं जा पाया है. बच्चे कई दिनों से भूखे हैं. भूख के कारण किसी को रात भर नींद नहीं आई. आज सुबह होने से पहले ही बादल छंट गये हैं. सभी अपने आश्रय से बाहर निकल पड़े हैं. रात भर बरसात के बाद सभी जगह पानी भरा हैं. कीचड़ में कन्द-मूल-फल की खोज में वन में भटकने का कोई लाभ नहीं होगा. तय होता है कि फलदार आफलबाड़ी पर धावा बोलना चाहिए. वानरों की टोली आफलबाड़ी की ओर बढ़ती हैं. पुरुष अपने साथ लड़कों को भी ले जा रहे हैं. छोटे लड़कों को आसानी से बाड़ी की बाड़ में से अन्दर घुसाया जा सकता है. लड़कों में बलशाली बली और आरुणेय भी हैं. चंचल, नटखट और बिजली सा फुर्तीला आंजनेय भी. सभी लडकियाँ घरों में माताओं के साथ हैं. लेकिन, दो जिद्दी घुमक्कड़ लड़कियां साथ हैं. दोनों कभी घर में नहीं रह सकतीं. दोनों हमारी हर यात्रा में साथ चलती हैं. इनके नाम याद है न. जीभा और भाषी. इस यात्रा के नियमित यात्री तो जानते हैं, किन्तु यदि आप इस यात्रा में पहली बार आयें हैं तो बता दूं कि जीभा और भाषी लगातार बोलती रहती हैं. एक दूसरे के बोले हुए शब्दों को दोहराते रहना ही इन दोनों का मन-पसंद खेल है। लेकिन हर बार पहला शब्द दोहराते हुए ये एक गलती कर देती हैं. मुझे जीभा-भाषी का शब्दों से खेलना बहुत अच्छा लगता है. इससे पुरखों के साथ मेरी यात्रा बहुत रोचक हो जाती है.
पौ फटने तक वानर टोली राज्यन की आफलबाड़ी की बाड़ के बाहर आ पहुँचि है. सभी जुगत लगा रहे हैं कि बिना पकड़े जाये, अन्दर कैसे पहुँचा जाए. लेकिन आंजनेय अधीर है. औरों कि तरह उसकी दृष्टि बाड़ में हुए किसी खण्ड या छेद को नहीं डूंड रही. वह तो पेड़ों की पत्तियों में छुपे फलों को डूंड रहा है. रवि (सूरज) उग रहा है. लाल रंग का बाल-रवि पेड़ों की हिलती-डुलती पत्तियों के बीच से झाँक रहा है. इन्हीं पत्तियों के बीच आंजनेय को पके हुए मीठे रूबी-फल (लाल फल) दिख गए हैं. ये देखो, अधीर आंजनेय ने दौड़ कर एक लम्बी और ऊँची छलांग लगायी और सीधा पेड़ पर. अभी आंजनेय ने पहला मधुर रवि-फल तोड़ कर मुँह में डाला ही है कि राज्यन स्वयं वहां आ पंहुचा है. राज्यन ने आंजनेय को देखा और अपना वेत्र (बैंत की छड़ी) घुमा कर दे मारा. वेत्र आंजनेय की हनु (ठोढ़ी) पर जा लगा. आंजनेय सीधे धरती पर गिरा. उसकी हनु (ठोढ़ी) पर चोट आयी है, लेकिन अगले ही पल उसने उठकर बिजली की फुर्ती से बगीचे की बाड़ के ऊपर से छलांग मारी और राज्यन की पहुँच से बाहर हो गया. इससे पहले कि राज्यन के बगीचे के रखवाले उनके पीछे पड़ते, पूरी वानर टोली दौड़ कर अपने अड्डे पर पहुँच चुकी थी, और बच्चे अपनी माताओं को पूरी कथा सुना रहे थे.
“माँ माँ! आंजनेय ने मधुर रूबी-फल देखा. उसने उछल कर रूबी-फल को मुँह में निगल लिया. राज्यन ने वेत्र फेंका जो उसके हनु पर लगा.
आंजनेय के हनु पर चोट लगी है. उसका हनु बहुत सूज गया है. माता लेप लगाने के लिए आग्रह कर रही है. किन्तु आंजनेय उत्तेजित और रोमाञ्चित है. हनु (ठोढ़ी) पर राज्यन के वेत्र का वार पड़ते ही आंजनेय के मस्तिष्क में एक क्रान्तिकारी विचार कोंध गया है. आगे चल कर, यही विचार वानरों को रोज-रोज की इस छापेमारी और पकडे जाने के डर से मुक्ति दिलाने वाला है. इसके साथ ही वानरों और आफलों के बीच होने वाली लड़ाई भी समाप्त करने वाला है. सूजे हुए हनु को हाथ से पकड़े हुए, आंजनेय ने माता अंजना के पति और अपने पालक-पिता, लम्बे और घने बालों वाले केशरी से कहा,
“पिताजी, हम वानर भी क्यों वन-वन भटकें. हम क्यों आफलों से डर-डर कर जियें. हमें भी आफलों की तरह अपनी फलबाड़ी उगानी चाहिए. हमें भी उन्हीं की तरह फलबाड़ी-गृह में रहना चाहिए”.
आंजनेय की बात में दम है. वानरों की अपनी फलबाड़ी की संभावना से ही केशरी का मन-तन रोमांचित हो गया. उसकी छाती गर्व से फूल रही थी क्योंकि उसके पुत्र के विचार से वानरों का जीवन सदा के लिए बदलने वाला है.
“तुम्हें यह विचार पहले क्यों नहीं आया, आंजनेय? हमें भी यह विचार पहले क्यों नहीं आया, वानरों? हाँ हम अपनी फलबाड़ी उगायेंगे. फिर कोई कभी भूखा नहीं सोयेगा.”
ख़ुशी में, सभी मुँह से किल-किल, खिल-खिल, गिलगिल की आवाज़ कर रहे हैं. सभी तालियाँ बजा रहे हैं.
अब तक माता अंजना पुत्र आंजनेय के हनु पर लेप लगा चुकी हैं. पीली हल्दी के लेप से आंजनेय का हनु और भी उभर कर दिख रहा है. आँखे, नाक और कान सभी फूले हुए हनु के सामने छोटे लगते हैं. उसका पूरा मुख केवल हनु-वान हो गया है.
बली ने कहा, “आंजनेय, आज से तुम्हारा नाम हनु-वान!” वह जोर से हँसा आंजनेय ने बली को गुस्से से देखा.
बली ने कहा, “आंजनेय, आज से तुम्हारा नाम हनु-वान!” वह जोर से हँसा आंजनेय ने बली को गुस्से से देखा.
आंजनेय के क्रान्तिकारी विचार ने वानरों में नयी उर्जा भर दी है. बली की अप्रिय बात सुनकर भी केशरी को कविता सूझ रही है.
“वेत्र लगा हनु में, मुख हुआ हनुवान.
चमक लगी मन में, शिर हुआ ज्यानवान (ज्ञानवान)”.
मेरे आंजनेय का नाम हनुवान नहीं. इसका नाम है ज्यानवान.
टोली ने फिर खिल–खिल, गिल-गिल का शोर किया.
“ज्यानवान. हाँ भाई, आज से हम आंजनेय को ज्यानवान ही कहेगें. जाम्बवान ने कहा.
मुझे जोर की भूख लगी है. किन्तु लगता है कि वानर टोली के लोग इस समय भूख को भूल चुके हैं, क्योंकि अब वे फलबाड़ी लगाने का विमर्श करने में व्यस्त हो गए हैं. शुक्र है कि यह विमर्श अधिक देर नहीं चला, और सभी एक बार फिर आफलबाड़ी की और कूच कर रहे हैं.
लेकिन इस सभी वार्तालापों को सुनकर, जीभा और भाषी का शब्दों का खेल शुरू हो गया है. वह नहीं जानतीं इस खेल में बोले और सुने शब्दों में आने वाली सदियों में शब्दों में होने वाले परिवर्तनों की ध्वनियाँ सुनी जा सकती हैं, और इनके बोले अनेक शब्द अनेक भाषाओँ में प्रयोग होने वाले हैं. शब्दों में होने वाले बदलावों के कारण हमारे पूर्वजों की गाथाएँ अविश्वसनीय कथाओं में बदलने वाली हैं.
जीभा ने वानर-वार्ता को दोहराना शुरू किया, "उसने उछल कर रूबी फल को खाया."
भाषी ने टोका. "नहीं, उसने उजल कर रवि फल को खाया"
जीभा, "नहीं, उसने उजर कर रवि बल को खाया"
भाषी, "नहीं, उसने उयर कर रवि बाल को खाया"
जीभा "नहीं, उसने उयड़ कर रवि बाल को खाया"
भाषी "अरे नहीं, उसने उड़ कर बाल-रवि को खाया"
दोनों मिल कर हँसी " आंजनेय ने उड़ कर बाल-रवि को खाया."
"आंजनेय ने उछल कर रूबी फल को खाया." का सत्य अब "आंजनेय ने उड़ कर बाल-रवि को खाया" की गप्प में बदलने जा रहा था.
जीभा और भाषी का खेल जारी था...
जीभा अपने गालों को फुला कर हवा बाहर छोड़ते हुए और उँगली से फूला गाल दिखाते हुए बोली -- फू
भाषी ने उसमें एक व्यंजन जोड़ा – फूर
जीभा बोली -- फूल
भाषी बोली— फल
और इस तरह शब्दों का खेल चल पड़ा....
फल
बल (फल यानी जो फूला हुआ है. बलशाली मांसल होता है, और निर्बल पतला)
बली (बलशाली, राक्षसों का एक राजा)
बाली (वानरों का राजा, सुग्रीव का बड़ा भाई).
बली
बुली
बुल्ली bully [अँग्रेज़ी] = दबंग, धौंस जमाने वाला या धौंसिया
.........
फल
आफल
आफ्फल
अप्फल Apfel [जर्मन] = सेब
अप्पल apple [अंग्रेजी] = सेब
....
फल
आफल
आमल
आमर
आम्र [संस्कृत] = आम
अमर = देवता
.......
आफल
आफलबाड़ी (फलों का बग़ीचा; फलों के बग़ीचे में घर)
आफरबाड़ी
आमरबाड़ी
अमराबाड़ी
अमरावाडी
अमरावती (= इन्द्रलोक, स्वर्ग)
.....
ज्वल (= आग) > जेवेल jewel > जेवर
ज्वर = गर्मी बुखार
ज्यर
जार
ज़ार
राज
राजन
राज्यन
यनजर
यनदर
इनदर
इन्द्र (= देवताओं का राजा)
....
ज्वल
लवज
रवज
रवय
रवि
रबि
रूबी ruby
रूपी > रूप
रुपे
पेरू [संस्कृत] = अग्नि, सूर्य
...
रूप
रूप्य
रुपया
....
ज्वल
ज्यर
स्यर
सूर्य
सूर्यज
सुजर्य
सुगर्य
सुगर्व
सुग्रीव (सुग्रीव का पारंपरिक अर्थ सुन्दर ग्रीवा (गर्दन) वाला है).
.....
मृ [संस्कृत] = मर, मार, हत्या
मर
मार
मारत
मारतय
मार्त्य [संस्कृत] = मारने वाला
मार्यत
मरुत (एक प्रकार के वीर सैनिक)
मारुति (= मरुत पुत्र, हनुमान)
....
वेत्र (बैंत की लाठी)
वेद्र
वेज्र
वज्र (इस कहानी में मैंने वज्र का अर्थ बिजली नहीं लिया गया है)
....
वन
वनर
वानर
....
ज्वल = आग
चवल
कवल
कबल
कपल
कपिल (बन्दर के रंग या ताम्बे के रंग जैसा भूरा)
कपिर
कपिः
.....
कपिल (बन्दर के रंग या ताम्बे के रंग जैसा भूरा)
कोपर
कोप्पर copper
.....
कपिल
कपिर (बन्दर)
कापिर
काफ़िर
....
शिर
शिरय
शियर
हियर
हेयर hair
....
शिर
शिरय
शियर
शिरयक
कयशिर
केशिर
केशरी (हनुमान जी के पालक पिता, शेर को भी केशरी कहते हैं)
केशर
....
ज्यानवान
ह्यानवान
हयानवान
हनायवान
हनुवान
हनुबान
हनुमान
....
किलकिल
खिलखिल
गिलगिल
गिगिल्ल
गिग्गिल giggle
हनुमान जी की कथा की मेरे द्वरा की गई यह व्याख्या पूरी तरह से काल्पनिक है. इसे पढ़ने के बाद आप ही बताइये कि
"आंजनेय ने उछल कर रूबी फल को खाया"
या
"आंजनेय ने उड़ कर बाल-रवि को खाया"
...........
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Thursday, July 13, 2017
कज़िन (cousin) की घर वापसी – संस्कृत से अँग्रेज़ी में और वापस संस्कृत की बेटियों की गोद में
कुछ दशक पहले ही, हम भारतीयों ने चाचा, ताऊ, फूफा, मामा और मौसा के
लिए अँग्रेज़ी के शब्द ‘अंकल’ (uncle) को, और चाची, ताई, बुआ, मामी, और मौसी के लिए
अँग्रेज़ी शब्द ‘आंटी’ (aunt/ auntie) को अपनाया था. इसी तरह अब हम चचेरा, फुफेरा,
ममेरा, मौसेरा भाई या बहन के लिए अँग्रेज़ी के ‘कज़िन’ (cousin) शब्द को अपना चुके हैं.
अँग्रेज़ लोग इस शब्द का उपयोग दूर के रिश्तेदार के रूप में भी करते रहे हैं. हम भी
वैसा ही कर रहे हैं. क्यों न हो. कज़िन (cousin) एक आसान शब्द है, जो अनेक रिश्तेदारियों
को समेटे हुए है. भाषाविदों के अनुसार, लैटिन में मौसेरी बहन के लिए शब्द कोंसोब्रिनस
(consobrinus) से ही अँग्रेज़ी का कज़िन तथा कुछ अन्य यूरोपीय भाषाओँ में इसके समानार्थक
शब्द निकले. किन्तु, मैं समझता हूँ कि कज़िन शब्द का मूल शब्द संस्कृत का ‘स्वजन’ है.
‘कज़िन’ संस्कृत से यूरोपीय भाषाओं में एक तद्भव शब्द के रूप में, गया, और अब भारतीय
भाषाओं में उसकी वापसी हुई है. आइये, इस शब्द की भारत से यूरोप और यूरोप से भारत की
यात्रा को देखते हैं.
स्वजन [संस्कृत] = अपने लोग, रिश्तेदार
च्वजन (स > च)
क्वजन (च > क)
क्यजन (व > य)
क्यसन (ज > स)
क्यसन (ज > स)
कोसिन cosin (य > ओ; ज > स) [12वीं शताब्दी की पुरानी फ्रेंच]
कज़िन cousin [आधुनिक फ्रेंच]
कज़िन cousin [अँग्रेज़ी]
कुजीनो cugino [इटालवी]
कुसिने kusine [डैनिश]
कुज्य्न kuzyn [पोलिश]
और अब ‘स्वजन’ की भारत वापसी अँग्रेज़ी के कज़िन cousin से हुई. है न रोचक
बात!
नोट : Cousin (कज़िन) शब्द की यह व्युतपत्ति मेरी निजी कल्पना है. भाषाविद् इस व्युत्पत्ति को सही नहीं मानते. उनके अनुसार यूरोपीय भाषाएँ प्रोटो-इंडो-यूरोपियन भाषा से जन्मी हैं, संस्कृत से नहीं. सभी शब्दों के संस्कृत डी.एन.ए. के लिए इस ब्लॉग का साथ बनाये रखिये.
नोट : Cousin (कज़िन) शब्द की यह व्युतपत्ति मेरी निजी कल्पना है. भाषाविद् इस व्युत्पत्ति को सही नहीं मानते. उनके अनुसार यूरोपीय भाषाएँ प्रोटो-इंडो-यूरोपियन भाषा से जन्मी हैं, संस्कृत से नहीं. सभी शब्दों के संस्कृत डी.एन.ए. के लिए इस ब्लॉग का साथ बनाये रखिये.
Homecoming of ‘cousin’ - from Sanskrit to English and back in the laps of Sanskrit’s daughters
A few decades ago, we in India adopted the English words
'aunt' and ‘uncle’ in our languages. Now we have adopted another relationship word
'cousin'. The English have also used this word in the sense of a distant
relative. We are doing the same and why not? Cousin can be spoken easily and just one word can replace several
specific words for sons and daughters of maternal and paternal uncles and
aunts. According to linguists, the Latin word ‘consobrinus’ (= the mother's sister's daughter) is the
origin of the English word cousin and some of its synonyms in European languages. But,
I propose that the word cousin originated from the Sanskrit word 'svajana' स्वजन = my
people. Therefore, the current use of ‘cousin’ in Hindi and other Indian languages is a
sort of homecoming. Let's have a look at the journey of this word
from India to Europe and back.
svajana स्वजन [Sanskrit] = my own people, relatives >
chvajana (s > ch) >
kvajana (ch > k) >
kyajana (v >
y) >
kyasana (j > s)
kyasana (j > s)
cosin [mid-12c.,
Old French] >
cousin [Modern French] >
cousin [English] >
cugino [Italian]
kusine [Danish]
kuzyn [ Polish]
And now 'svajana' स्वजन of Sanskrit
has come back to Indic languages via English, in the form of ‘cousin’. Interesting, isn’t
it!
Note: The etymology of 'cousin' presented here is my personal view. It is different from the established etymology by linguists who say that the European languages came from proto-Indo-European language and not from Sanskrit.
Note: The etymology of 'cousin' presented here is my personal view. It is different from the established etymology by linguists who say that the European languages came from proto-Indo-European language and not from Sanskrit.
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